हाथ में लेकर मशाले ढूंढ लो अंधेर को
हाथ में लेकर मशालें ढुंढ लो अंधेर को
अब दिए काफ़ी नहीं रोशन करे मुंडेर को
वो करें ज़ुल्मो शितम और हम बैठे रहे
क्या यही दिन देखना फिर शेष था दिलेर को
जो मिले वहशी कही फिर देर हो किस बात का
हण्टरों की बात तो समझ में आती शेर को
सांस तक ले छीन हमसे बस अगर उनका चले
अब भी नहीं संभले तो फिर मेहमान हो कुछ देर को
दासतां की बेड़ियाँ “काजू” सितमगर है बड़ी
कर दूर काली रात अब न देर कर सवेर को …
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काजू निषाद गोरखपुर राजधानी