फ़ितरत और इंसान
चलो जहां भी तो रख़ते सफ़र के साथ चलो
ये कायनात जहां हमने शब गुज़ारी है
न जाने कोनसी राहों में काम पड जाए
ओर आख़िरश हमें उस दम उदास होना पड़े
ये जंगलात, ये दरिया, ये कोहसारो दरख्त
सभी के सीनों को ज़ख़्मी किया हे इंसां ने
ये बढना यूंही नहीं दरजा ए हरारत का
ये चीख चीख के कहते हैं हमसे, ग़ौर करो
कहीं तुम्हारे अ़मल में ज़रूर ख़ामी हे
ये शोरोग़ुल हे तरक्की के नाम पर जितना
ये बेदरीग़ जो सीना ज़मीं का चीरते हो
ज़मीं के दिल से भी इक आह निकलती होगी
ये कोहसार बदल डाले संग रेज़ों में
ये नददियों पे जो इक बारे आब डाल दिया
न सोचा तुमने के फ़ितरत पे किया गुज़रती हे
न मांगा तुमसे कभी कुछभी फ़ितरत ने
ये चाहती हे कि इनसान मुझसे प्यार करे
हज़ार बार करे और हजार बार करे
अगर यही रहा दस्तूर आयेगा वो दिन
कि सांस लेना भी दुशवार होगा इनसां को
और ऐक मर्तबा तुमको बताय देता हूं
चलो जहां भी तो रख़ते सफ़र के साथ चलो।
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