माटी का घर
याद आता है माटी का वो घर
जिसमें हमारा बचपन बीता।
मोटी मोटी दीवारों वाला
वो खपरैल का घर
उसी माटी वाले घर में
हम पले,बढ़े,खेले कूदे और आज
शहर वासी बन शान बघारते हैं।
उन दिनों बिजली गाँवो से दूर थी
फिर भी हम खुश थे
उस माटी के घर में,
अपने भरे पूरे परिवार के साथ।
बड़ा सा घर,बड़ा सा आंगन
बाहरी हिस्से में
आज का बरामदा कहिए
होता था दालान।
डर भी लगता था
साँप बिच्छू का भय
हमेशा बना रहता था।
वारिश का कष्ट दायी समय भी
अपने घर में
सूकून का अहसास कराता था।
आज तो कंक्रीटों का जाल है
तब वो माटी का घर
कितना सूकून देता था,
नई पीढ़ी उस सूकून से
अपनेपन का अहसास
कहाँ कर पायेगी,
पक्के मकान भी
खुशी का वो अहसास
कभी नहीं दे पायेगी।
माटी के घर की खुशबू
अब कहाँ मिल पायेगी?
माटी के घर की कहानी
अब इतिहास में ही रह जायेगी।
Read Also:
हिंदी कविता: रिश्तों का मेला
हिंदी कविता: सौगात
हिंदी कविता: परिवेश
अगर आप की कोई कृति है जो हमसे साझा करना चाहते हो तो कृपया नीचे कमेंट सेक्शन पर जा कर बताये अथवा contact@helphindime.in पर मेल करें.
यह कविता आपको कैसी लगी ? नीचे 👇 रेटिंग देकर हमें बताइये।
Note: There is a rating embedded within this post, please visit this post to rate it.कृपया फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और whatsApp पर शेयर करना न भूले 🙏 शेयर बटन नीचे दिए गए हैं । इस कविता से सम्बंधित अपने सवाल और सुझाव आप नीचे कमेंट में लिख कर हमे बता सकते हैं।
About Author:
✍सुधीर श्रीवास्तव
शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल
बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002