Insaniyat ka shahar | इंसानियत का शहर
शीर्षक : इंसानियत का शहर
है स्याही कलम मे समन्दर के जितनी
पर कलम में भी गहरा असर चाहिये था।
बदल जाता इन हवाओ का रुख भी
इसे सिर्फ लफ्जों का हुनर चाहिये था।
जोड़ देते हैं रंगों को मज़हब से ये
इन्हें इंसानियत का शहर चाहिये था।
कहाँ तक भटकती ये रूहे मुसाफिर
इसे मंजिलों का भी घर चाहिये था।
है मौजूद बेजान बस्ती में ये
इसे इंसानियत का शहर चाहिये था।
जिन वृक्षों की शखों पर बसायी थी दुनिया
उंन वृक्षों को भी जीने का हक चाहिये था।
कहर बन के बरसी परिंदो पे दुनिया
इन्हे चंद बूंदों का घड़ा चाहिये था।
बदला है रास्ता बादलों ने भी अपना
ये बरसते नहीं बरसना जिधर चाहिये था।
तपने लगी है रूह धरती की अब तो
माँ का आंचल है इसको रहम चाहिये था ।।
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मेरा नाम प्रतिभा बाजपेयी है. मैं कई वर्षों से कविता और कहानियाँ लिख रही हूँ, कविता पाठ मेरा Passion है । मैं बी•एड की छात्रा हूँ और सहित्य मे मेरी गहरी रुचि है।
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