शिल्प और शिल्पकार
कितना अच्छा लगता है
जब हम किसी
शिल्प की अद्भुत कला को निहारते हैं,
शिल्पकार की कला को बखानते हैं।
पर क्या कभी हम सोचते हैं?
कि इस शिल्प के पीछे
शिल्पकार का कितना
संघर्ष,श्रम,समर्पण और
परिकल्पना निहित है,
शायद हाँ या शायद नहीं भी
परंतु सच तो यह है कि
शिल्पकार अपने शिल्प में
खुद को समाहित कर देता है,
अपनी एक एक साँस
अपना जी जान लगा देता है।
सुधबुध खो बैठता है
अपने शिल्प के अलावा
उसे कुछ भी नजर नहीं आता,
अपने शिल्प में वह
अपनी संवेदना के साथ
अपनी साँसे तक भर देता है।
फिर भी संतुष्ट नहीं हो पाता है
अपने शिल्प के प्रति घमंड
उसे छू भी नहीं पाता,
तब जाकर कहीं श्रेष्ठ से श्रेष्ठ
और श्रेष्ठ शिल्प का
नया निर्माण हो पाता,
फिर अधिकतर शिल्प
आगे बढ़ जाता है,
लेकिन शिल्पकार
नेपथ्य में रह जाता है।
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Author:
✍सुधीर श्रीवास्तव
शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल
बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002