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संस्मरण: माँ की महिमा

माँ की महिमा

वर्ष 2014 की बात है। उस समय मैं हरिद्वार में लियान ग्लोबल कंपनी में काम करता है।
वैसे तो हरिद्वार में चण्डी देवी, मंशा देवी, हरि की पैड़ी, शान्ति कुँज,आदि कई स्थानों पर घूम चुका था। अपने रुम पार्टनर अरविंद मिश्रा (कानपुर) से कई बार सुरेश्वरी माता की चर्चा सुन चुका था। सो मेरी भी इच्छा उनके दर्शन की प्रबल हो रही थी। कई बार प्रोग्राम बनता बिगड़ता रहा। क्योंकि फैक्ट्री में ओवरटाइम का मामला आ जाता रहा।

आखिर एक रविवार मिश्रा जी के साथ प्रोग्राम बना, मगर मिश्रा जी को अचानक ओवर टाइम के लिए बुला लिया गया।मैं निराश हो गया।फिर कालोनी के दो लोग तैयार हो ही गये।

खैर….जैसे तैसे कमरे से निकले।आगे हम एच ए एल पहुंचे ही थे कि मेरे साथियों ने वापसी का फैसला किया और मुझे आश्वस्त करने लगे कि किसी और दिन चलेंगें।दरअसल वो छुट्टी के कारण पीने पिलाने के चक्कर में उलझ गये। मैं बड़े असमंजस में था।फिर मैनें अकेले ही जाने का निर्णय कर आगे बढ़ गया। पूछते पूछते अंततः रानीपुर स्टेट बैंक/स्टेडियम के पास पहुँचने पर मुझे अपना लक्ष्य करीब महसूस होने लगा।
थोड़ा आगे बढ़ने पर मुझे बन विभाग का बैरियर मिला।

बताता चलूं कि मां के मंदिर जाने का एक मात्र रास्ता वो बैरियर ही था।क्योंकि माँ का मंदिर जंगल के मध्य पहाड़ियों में और वन विभाग की निगरानी में है।वहां जंगली जानवरों का खतरा अधिक रहता है।
खैर..।

मैनें बैरियर पर वनकर्मी से आगे रास्ता पूछने के उद्देश्य से बात कि तो उसने सीधे सपाट लफ्जों में बता दिया कि बिना साधन किसी को भी जाने की परमीशन नहीं है। बिना कुछ कहे सुने मैं वापस पुनः स्टेडियम के पास आया और एक दुकान पर चाय पीते हुए दुकान वाले से चर्चा की ।तब उसनें बताया कि जंगली जानवरों के डर से किसी को बिना वाहन नहीं जाने दिया जाता।

फिर लोग कैसे जाते हैं? मैनें जानने के उद्देश्य से दुकान वाले से पूछा, तब उसनें बताया कि लोग अपनी मोटरसाइकिल,कार से या फिर टैक्सी, टैम्पो बुक कराकर जाते हैं। आप पैदल हो ,इसलिए अच्छा ही कि लौट जाओ। मैनें चाय के पैसे दिये और फिर एकबार उसी बैरियर की ओर चल दिया।क्योंकि मै बिना दर्शन किये वापस न होने के बारे में सोच रहा था।

वहाँ पहुंच कर देखा कि एक वनकर्मी बाहर कुर्सी पर बैठा सामने छोटी सी बेंच रखकर कुछ कागजी काम निपटा रहा है। पास में एक खाली कुर्सी भी पड़ी थी। मैं चुपचाप उसी पर बैठ गया।कुछ देर बाद सामान्य बातचीत के बाद मैनें अपना उद्देश्य बताया। उसने भी वही बातें दोहरा दी जो चायवाले ने कही थी,मैं निराश होता जा रहा था।लेकिन हिम्मत कर जब मैनें उससे कहा कि मैं बहुत दूर से आया हू्ँ और माँ के दर्शन की प्रबल इच्छा है। तब शायद वह सोचने पर विवश हो गया और माँ की महिमा ने अपना असर दिखाया। तब तक करीब दो बजने को हो रहे थे।

उसनें मुझे समझाया कि यूं जाना खतरे से खाली नहीं है ,फिर भी माँ के भरोसे ही मैं अपनी रिस्क पर आपको जाने दे रहा हूँ, रास्ते में सावधानी से जाना आना और पाँच बजे से पहले पहले वापस आ जाना।
मुझे लगा कि मुझे मनचाही मुराद मिल गई। मैं का नाम ले आगे बढ़ गया। बैरियर से ही थोड़ी दूर चलने पर एक बुजुर्ग एक छोटे बच्चे के साथ आते दिखाई दिए।मैनें उनसे मंदिर की दूरी पूछी। तब उन्होंने उन्होंने लगभग तीन किमी. बताते हुए मेरे इस तरह पैदल अकेले जाने पर आश्चर्य भी व्यक्त किया और मुझ पर चुपके से आने का संदेह व्यक्त करने लगे।

जब मैनें पूरी बात बताई तो उन्होंने ने भी सावधानी बरतने और जल्दी वापसी की ताकीद भी की।जब मैने उनके बारे में में पूछा तो पता चला कि वे किसी वनकर्मी के परिवार से हैं।

…और फिर इस तरह मैं फिर आगे बढ़ गया।।
पुनः थोड़ी दूर जाने पर जंगलो के बीच काफी बड़ा क्षेत्र खेतो का था। उन्हीं के बीच दो छोटे नालों को पार करतेे हुए डर और आशंकाओं से घिरा मैं मंदिर की ओर बढ़ रहा था।बार चौकन्नी निगाहों से इधर उधर देखते हुऐ आगे बढ़ने के दौरान जंगली जानवरों की आवाजें सिहरन भी पैदा कर रही थीं।

डर इस बात का भी था उस दूर तक फैले खेतों के मध्य न तो एक पेड़ थाऔर न ही कोई झोपड़ी ।
अंततः मुझे पहुँचने से पहले ही मंदिर दिखाई पढ़ने लगा तब थोड़ा संतोष हुआ और खुशी भी। आखिरकार मुझे मेरी मंजिल मिल ही गई और मै मंदिर पहुंच गया।

माँ का धन्यवाद किया और मंदिर से लग कर बहने वाली नदी में हाथ पैर धुलकर थोड़ा आराम की मुद्रा में मंदिर के नीचे बैठा रहा। थोड़ी देर बाद दर्शन का सौभाग्य मिला ,बड़े सूकून से दर्शन पूजन कर मंदिर प्रांगण में टहलता रहा। जानकारी लेता रहा ,उस समय मंदिर परिसर में बमुश्किल 12-15 लोग ही थे।जिसमें भी पाँच लोग मंदिर के महंत आदि थे।

माँ का खूबसूरत मंदिर घने जंगलों में पहाड़ की तलहटी में है। माँ पहाड़ की जड़ में ही प्रकट हुई बताई जा रही है । मंदिर का उस समय भी सतत विकास जारी था। मुख्य मंदिर के पूरे परिसर को लोहे की जाली से सुरक्षित किया गया था।क्योंकि जंगली जानवर विचरण करते हुए बहुत बार मंदिर प्रागंण तक जंगली जानवर आ जाते थे।घंटे घड़ियाल पर पूर्ण प्रतिबंध था,यहांँ तक कि प्रसाद बिक्री की भी कोई दुकान नहीं थी।

हाँ,मंदिर में में अनेक दुर्लभ वृक्ष जरूर लगे हैं,जिनमें रूद्राक्ष का वृक्ष भी शामिल है। कारण कि सामान्य दिनों में गिने चुने श्रद्धालु ही आते थे।जिन्हें पता होता था वो आते हुऐ प्रसाद साथ लेकर ही आते थे। मंदिर में रोशनी के लिए सौर उर्जा का प्रबंध था। चार लोग ही मंदिर में रात्रि में रूकते थे।मंदिर की हर जरूरत का प्रबंध चार बजे तक हो जाता था। क्योंकि तीन- चार बजे के बाद मंदिर में रुकने वालों को छोड़कर किसी को सुरक्षा कारणों से वापस कर दिया जाता था। वन विभाग के बैरियर पर गर्मियों में पाँच व जाड़े में चार बजे तक पहुंचना होता था।

…और इस तरह माँ सुरेश्वरी देवी की महिमा से उनके दर्शन की असीम खुशियों के साथ मैं सकुशल ससमय लौट आया। बैरियर पर एक दूसरे वनकर्मी ने तमाम शंका समाधान के बाद जाने दिया, जब मैनें उसे संतुष्ट किया कि मैं उन्हीं के सहयोगी की सहमति से ही गया था।

इस तरह रोमांच से भरी यात्रा के बीच माँ सुरेश्वरी देवी के प्रथम दर्शन का सौभाग्य मिला आपको बताता चलूं कि केवल नवरात्रों में ही आने जाने की खुली छूट होती है,लेकिन समय सीमा के भीतर।नवरात्रि में माँ के दरबार में विशाल भंडारे का भी आयोजन होता है। मैं भी एक बार माँ के भंडारे का प्रसाद ग्रहण कर माँ की असीम अनुकम्पा हासिल करने का सौभाग्य प्राप्त कर चुका हू्ँ।
लेकिन बरसात में मंदिर बंद रहता है क्योंकि मंदिर से सटकर बहने वाले नाले में उफान सा रहता है।

जय माँ सुरेश्वरी देवी की जय

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About Author:

सुधीर श्रीवास्तव
शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल
बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002

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