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Poet Bihari Lal Biography In Hindi | कविवर बिहारी का जीवन परिचय
हिंदी साहित्य में कुछ कवि ऐसे हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा प्रसिद्धि हासिल की है। उन ही प्रसिद्ध कवियों में से एक कवि कविवर बिहारी जी हैं। कविवर बिहारी रीतिकाल के प्रसिद्ध और महान कवि माने जाते हैं। इनके द्वारा दोहों का संग्रह किया गया जिनका नाम सतसई रखा गया। इनकी रचनाएँ लोगों पर कम शब्दों में गहरा भाव छोड़ देती हैं।
मुख्य रूप से इनकी रचनाओं में श्रृंगार रस का प्रयोग किया गया है और इसके अलावा इन्होंने अपनी रचनाओं में भक्ति और नीति का समागम भी किया है। इनके दोहे में ब्रज भाषा का प्रयोग किया गया है और इसके साथ श्लेष, उत्प्रेक्षा, उपमा और रूपक आदि अलंकारों का प्रयोग देखने को मिलता है। इस पोस्ट में कविवर बिहारी का जन्म, साहित्यिक जीवन, प्रमुख रचना और साहित्यिक योगदान, काव्यगत विशेषताएँ से संबंधित जानकारी देंगे।
नाम | कविवर बिहारी |
जन्म | 1595 ई. |
जन्म स्थान | ग्वालियर |
पिता का नाम | केशवराय |
गुरु | नरहरिदास |
पेशा | कवि, राजकवि |
प्रमुख रचना | सतसई |
मृत्यु | सन् 1663 में |
कविवर बिहारी का जन्म
रीतिकाल के प्रमुख कवि बिहारी लाल का जन्म ग्वालियर राज्य के गोविंदपुर नामक गाँव में 1595 ई. में हुआ था। कविवर बिहारी जी ब्राह्मण परिवार से संबंध रखने वाले व्यक्ति थे। बिहारी जी के पिता का नाम केशवराय था। जब बिहारी जी केवल 8 साल के थे तब उनके पिताजी केशवराय उन्हें ओरछा लेकर आ गए थे इसलिए इनके जीवन का बाल्यावस्था का समय बुंदेलखंड में ही बीता।
इनके गुरु नरहरिदास थे। इनके गुरु ने बिहारी जी की जान पहचान मुगल सम्राट जहाँगीर से भी करवाई। इनकी शादी मथुरा की एक लड़की से हुई और शादी के पश्चात उन्होंने अपना तरूणावस्था का समय ससुराल में ही बिताया। इन्होंने अपनी रचना के एक दोहे में इस बात का ज़िक्र भी किया है जो इस प्रकार है:–
जन्म ग्वालियर जानिये खंड बुंदेले बाल।
तरुनाई आई सुघर मथुरा बसि ससुराल।।
कविवर बिहारी का साहित्यिक जीवन
कवि बिहारी जी जयपुर के महाराजा जयसिंह के दरबारी कवि थे। बिहारी जी ने अपने जीवन का कुछ समय जयपुर में रहकर व्यतीत किया। राजा जयसिंह विवाह के पश्चात अपने पत्नी के प्रेम और सौंदर्य में इस कदर आकर्षित हो गए कि उन्होंने अपने राजकाज को संभालना छोड़ दिया। उनकी प्रजा उनके इस व्यवहार से बहुत ज़्यादा परेशान हो गई लेकिन सब राजा से डरते थे और किसी में इतनी हिम्मत नही थी कि जाकर राजा को कुछ कह पाए।
सब चाहते थे कि कोई राजा का ध्यान इस परेशानी की ओर आकर्षित कराए और राजा को राजकाज पर ध्यान देने की सलाह दे। महाराजा का ध्यान राजपाठ की ओर आकर्षित कराने के लिए कवि बिहारी लाल जी ने दोहे की रचना की। इस दोहे को पढ़ महाराजा जयसिंह आकर्षित हुए और यह समझ गए कि वह एक पति व प्रेमी होने के साथ-साथ एक राजा भी हैं और इसके बाद उन्होंने अपनी प्रजा और राजकाज पर ध्यान देना शुरू किया। कवि बिहारी जी द्वारा रचित वह दोहा इस प्रकार है:–
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल।
अली कली ही सौं बंध्यो, आगे कौन हवाल।।
इस दोहे का अर्थ यह है कि भौरा जिस कली पर मंडरा रहा है अभी उस कली में पराग नहीं है और न ही इसमें अभी शहद निकलना शुरू हुआ है। भौरे का कली के लिए अभी से यह हाल हो गया है लेकिन जब कली फूल बन जाएगी तब क्या हाल होगा इस भौरे का।
दोहे में बिहारी जी ने राजा को भौरे से संबोधित किया है और कली को राजा की पत्नि से। इस दोहे के ज़रिए बिहारी जी यह संदेश देते हैं कि राजा की पत्नी जोकि अभी पूर्ण रूप से युवा नहीं हुई है तब ही पति राजा उसके प्रेम जाल में फसे हुए हैं। जब उनकी पत्नी पूर्ण रूप से युवा हो जाएँगी तब आपका क्या हाल होगा।
राजा तक इस दोहे का संदेश पहुँचने के पश्चात राजा कवि बिहारी लाल जी से बहुत ज़्यादा प्रसन्न हो गए और उनकी बहुत तारीफ़ की। राजा ने अपने राजकाज पर ध्यान देना शुरू कर दिया। राजा जयसिंह ने उन्हें दरबार के राजकवि पद पर नियुक्त कर दिया। राजा ने कवि के हर एक दोहे की रचना के पश्चात् उन्हें स्वर्ण मुद्रा देने का वादा किया।
बिहारी जी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान हासिल किया है। बिहारी जी ने अपनी रचनाओं में ब्रजभाषा का मुख्य रूप से प्रयोग किया है। इन्होने अपनी रचनाओं में ब्रजभाषा के अलावा भी कई अन्य भाषाओँ का प्रयोग किया जैसे- उर्दू, फारसी, बुंदेलखंडी और पूर्वी हिंदी आदि।
अपनी रचनाओं में शब्दों का इस्तेमाल इन्होंने स्थिति और भावों को ध्यान में रखकर किया। बिहारी जी श्रृंगार रस के प्रेमी थे इसलिए मुख्य रूप से इन्होंने श्रृंगार रस का प्रयोग किया है लेकिन इसके अलावा उन्होंने अन्य रस जैसे हास्य, शांत और करुण आदि का प्रयोग और समन्वय भी किया है। इनकी रचनाएँ दो प्रकार के छंद दोहा व सोरठा पर आधारित है। इनकी रचनाओं में कई अलंकारों का प्रयोग भी किया गया है जैसे– रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, श्लेष और अतिश्योक्ति अलंकार आदि।
कवि बिहारी लाल जी ने भक्ति विषय पर आधारित भी कुछ रचना की है। वह भगवान श्री कृष्ण के भक्त माने जाते हैं। इन्होंने कृष्ण भगवान के प्रति अपनी भक्ति का चित्रण सतसई में दोहे में शुरुआत में मंगलाचरण में किया है:–
मेरी भव बाधा हरो ,राधा नागरि सोय।
जा तन की झाई परे ,स्याम हरित दुति होय॥
कविवर बिहारी द्वारा रचित प्रमुख रचना और साहित्यिक योगदान
कविवर बिहारी द्वारा कई रचनाएँ की गई। उन रचनाओं में सतसई प्रमुख है। सतसई नामक रचना में उन्होंने 719 दोहों की रचना की है। सतसई एक मुक्तक काव्य है जिसकी रचना ब्रजभाषा में की गई। बिहारी जी ने अपनी रचना के कारण बहुत यश एवं प्रसिद्धि हासिल की।
हिंदी साहित्य में बिहारी जी का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। पहली बार बिहारी जी द्वारा ही हिंदी साहित्य में समास पद्धति का परिचय कराया गया। ऐसा माना जाता है कि बिहारी जी श्रृंगार रस के प्रेमी थे। अपनी रचनाओं में बिहारी जी ने श्रृंगार रस का प्रयोग प्रमुख रूप से किया है इसके अलावा हमें भक्ति और नीति का समन्वय भी देखने को मिलता है। इनका काव्य भाव और शिल्प दोनों रूपों में उत्तम है।
प्रसिद्ध साहित्यकार पं॰ पद्मसिंह द्वारा कवि बिहारी जी की रचनाओं की तारीफ़ करते हुए कहा है:- ” बिहारी के दोहों का अर्थ गंगा की विशाल जलधारा के समान है, जो शिव की जटाओं में तो समा गई थी, परंतु उसके बाहर निकलते ही वह इतनी असीम और विस्तृत हो गई कि लम्बी-चौड़ी धरती में भी सीमित न रह सकी । बिहारी के दोहे रस के सागर हैं, कल्पना के इन्द्रधनुष हैं, भाषा के मेष हैं। उनमें सौन्दर्य के मादक चित्र अंकित है।”
कविवर बिहारी की काव्यगत विशेषताएँ
कविवर बिहारी जी की रचनाओं में दो रूपों में विशेषताएँ पाई जाती है:–
(अ) भावपक्षीय विशेषताएँ (ब) कलापक्षीय विशेषताएँ
- भावपक्षीय विशेषताएँ
कवि बिहारी जी की भावपक्षीय विशेषताओ में गागर में सागर की विशेषता प्रमुख है। गागर में सागर का अर्थ है कम शब्दों में अधिक बाते कह देना। प्रसिद्ध कवि बिहारी जी ने अपनी रचनाओं में कम से कम शब्दों में कई बातों का वर्णन किया है। इसके अलावा इनकी रचनाएँ कम शब्दों के प्रयोग के बावजूद लोगों पर गहरा प्रभाव डालती है। उन्होंने अपनी रचनाओं में भक्ति और नीति का समन्वय किया है। बिहारी जी की रचनाओं में कुछ स्थानों पर इनकी कृष्ण भगवान के प्रति भक्ति भावना भी झलकी है। बिहारी जी की रचनाओं में प्रकृति चित्रण का सुन्दर वर्णन देखने को मिलता है। इन्होंने अपनी रचनाओं में अलग-अलग मनोहरी प्रकृति चित्रण किये है, इनके द्वारा प्रकृति का चित्रण आलंबन और उद्यीपन रुप से किया गया है। बिहारी जी द्वारा रचित रचनाओं में नीति से संबंधित सुक्तियो का भी प्रयोग हुआ है।
- कलापक्षीय विशेषताएँ
बिहारी जी ने अपने साहित्य में ब्रजभाषा का प्रयोग किया है, साथ ही इनकी रचनाओं में उर्दू, फारसी, बुंदेलखंडी और पूर्वी हिंदी आदि शब्दों का प्रयोग देखने को मिलता है। इनकी रचनाओं में मुक्तक शैली का प्रयोग देखने को मिलता है। इन्हें दोहा छंद बहुत पसंद थे इसलिए इनकी रचनाओं में दोहा छंद का प्रयोग देखने को मिलता है। इनके काव्यों में अलंकारों का प्रयोग भी देखने को मिलता है। इन्होंने अपनी रचनाओं में रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, श्लेष और अतिश्योक्ति अलंकारों का प्रमुख रूप से प्रयोग किया है।
मृत्यु
श्रृंगार रस के प्रेमी और रीतिकाल के महान कवि बिहारी लाल सन् 1663 में स्वर्ग सिधार गए।
तो ऊपर दिए गए लेख में आपने पढ़ा कविवर बिहारी लाल का जीवन परिचय (Biography of Poet Bihari Lal In Hindi), उम्मीद है आपको हमारा लेख पसंद आया होगा।
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Author:
भावना, मैं दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में ग्रैजुएशन कर रही हूँ, मुझे लिखना पसंद है।