मर्यादा
हमारे जीवन में मर्यादा का अपना महत्व है।बिना मर्यादा के जीवन में तमाम तरह की परेशानियों से आये दिन दो चार होना पड़ता है।
ठीक इसी प्रकार साहित्य में भी मर्यादा के बिना अच्छे और सारगर्भित साहित्य की कल्पना भी मुश्किल है।
जहाँ दैनिक जीवन में हम व्यवहारिक मर्यादाओं से हम बँधे होते हैं,वहीं साहित्यिक जीवन में भी हमें वैचारिक और शाब्दिक मर्यादा का पालन अपरिहार्य होता है।दैनिक जीवन में जहाँ हम मर्यादाओं से परे जाकर अनेक समस्याओं में उलझ जाते हैं,वहीं साहित्यिक जीवन में यदि हम मर्यादित नहीं रहते, तब समाज राष्ट्र में अनेकानेक समस्याएं खड़ी कर देते हैं।जिसका दुष्परिणाम जात पात,वर्ग ,संप्रदाय और समाज में मतभेदों की शक्ल में सामने आते हैं ।
कई बार तो इसके खतरनाक हिंसक स्वरूप भी देखने को मिल जाते हैं,जिसकी परिणति जन ,धन,और संपत्तियों के नुकसान के रूप में सामने आती है।
अत: जनमानस की जहाँ व्यक्ति गत,पारिवारिक, सामाजिक,राष्ट्रीय मर्यादाओं की जिम्मेदारी है,वही साहित्य, कला, संस्कृति से जुड़े लोगों की और अधिक जिम्मेदारी है,क्योंकि व्यक्ति और समाज के लिए साहित्य आइने की तरह होता है और साहित्यकार को पथ प्रदर्शक की तरह समझा जाता है।
ऐसे में समाज के हर तबके से अधिक मर्यादा की अपेक्षा हमारा समाज कलमकारों, कलाकारों, सामाजिक संस्कृति से जुड़े लोगों से अधिक रखता है।
वैसे भी यह विडंबना ही है कि हम खुद के बजाय औरों से अपेक्षाकृत अधिक संयमित और मर्यादित होने की अपेक्षा रखते हैं।
इसलिए हर किसी को यह गाँठ बाँध लेना चाहिए कि मर्यादा का पालन किसी एक का नहीं, अपितु हर नागरिक,समूचे समाज और राष्ट्र का है।तभी स्वस्थ सामाजिक, साहित्यक,राष्ट्रीय मर्यादा परिलक्षित हो सकेगी।
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✍सुधीर श्रीवास्तव
शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल
बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002