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पत्थर में भगवान
ये महज विश्वास है
कि पत्थर में भगवान है,
परंतु यही विश्वास हमें
बताता भी है
भगवान कहाँ है?
तभी तो हम मंदिर, मस्जिद
गिरिजा, गुरुद्वारों के
चक्कर तो लगाते हैं,
परंतु कितना विश्वास कर पाते हैं।
विडंबनाओं पर मत जाइये
अपने हर कठिन,
मुश्किल हालात के लिए
बिगड़े काम के लिये
भगवान को ही दोषी ठहराते हैं,
अपनी खुशी में भगवान को
शामिल करना तो दूर
याद तक नहीं करते,
सारा श्रेय खुद ले लेते हैं।
जिस भगवान का हम
धन्यवाद तक नहीं करते
कष्ट में उसी को याद भी करते हैं,
पत्थर के भगवान से
जिद करते,अड़ जाते हैं
विश्वास करके भी नहीं करते।
क्योंकि हम
खुद पर भी विश्वास कहाँ करते?
हमारे अंदर भी तो
भगवान बैठा है
यह सब जानते हैं,
उस पर जब हम
विश्वास नहीं करते,
तब पत्थर के भगवान पर
विश्वास कैसे जमा पाते?
हम तो बस औपचारिकताओं में
जीते जीते मर जाते,
अपनी पहचान भी मिटा जाते।
HINDI KAVITA: ईश्वर का धन्यवाद
जो भी प्यार से मिला
जब हमनें प्यार से
मिलने का जज्बा दिखाया,
अपने सामनें लोगों का
हूजूम पाया ।
हर कोई प्यार से हमें मिले
ऐ तो कोई बात नहीं,
हमने ही प्यार से,सबसे
मिलने का हौसला दिखाया।
लोगों ने भी मुझे देख
अपना मन बनाया,
जिस जगह मैं
खड़ा था अब तक अकेला,
वहां अब लोगों का सैलाब आया।
भूल जाइये आपसे
मिलने भी आयेगा कोई प्यार से ,
मैंनें आगे बढ़कर
लोगों को गले लगाया।
मैंनें लोगों के साथ होने की
बात को बिसार दिया,
अब तो जनसैलाब
मेरे साथ हो लिया ।
जिस जिससे प्यार से मैं मिला
सब मेरे साथ हो लिए,
मैं आगे बढ़ता रहा
लोग मेरे साथ हो लिए।
कवि की कल्पना
असीमित उड़ान ही तो
कवि की कल्पनाओं में
परवान चढ़ता है,
अकल्पनीय, अकथनीय
कल्पनाओं का संसार ही तो
कवि की कल्पना है।
खुद कवि भी नहीं समझ पाता
अपने कल्पनाओं की उड़ान को,
खुद भी चकित रह जाता है
देख अपने सृजन संसार को।
कवि की कल्पनाएं असीमित है
असमय ही उड़ान भरती हैं,
कल्पनाओं में ही तो वो
नित नये सृजन करती हैं।
न बँध सकती है कल्पनाएँ
किसी भी परिधि में,
कवि की कल्पनाएँ ही
दिखती हैं नव सृजनपथ में।
ईश्वर का धन्यवाद कीजिये
उसने आपको चुना है,
उसके चुनाव का अपमान
तो मत कीजिए।
ईश्वर हर पल हमारे साथ है,
कम से कम इसका ख्याल तो कीजिए,
इसके लिए ही सही
ईश्वर का धन्यवाद तो कीजिए।
इंसान बनो
जीवन भर हम खुद को
मकड़जाल में उलझाए रखते हैं,
सच तो यह है कि
हमें बनना क्या है?
ये ही नहीं समझ पाते।
मृग मरीचिका की तरह
भटकते रहते हैं,
इंसान होकर भी
इंसान नहीं रहते हैं।
हम तो बस वो बनने की
कोशिशें हजार करते हैं,
जो हमें इंसान भी
नहीं रहने देते हैं।
हम खुद को चक्रव्यूह में
फँसा ही लेते हैं,
और इंसान होने की
गलतफहमी में जीते रहते हैं।
काश ! हम इतना समझ पाते
इंसानी आवरण ढकने के बजाय
वास्तव में इंसान बन पाते,
काश ! हम अपने विवेक के
दरवाजे का ताला खोल पाते
जो बनना है वो तो हम बन ही जायेंगे
मगर अच्छा होता
हम पहले इंसान तो बन पाते।
हमारा मन
समय के साथ
सब कुछ बदलता जा रहा है,
बीता हुआ कल
इतिहास बन रहा है।
पर कुछ चीजें आज भी
न बदली हैं,
जैसे अपने स्वभाव को
हमेशा के लिए गढ़ ली हैं।
हमारा मन भी कुछ ऐसा ही है
जो गिरगिट सा रंग नहीं बदलता है,
जैसा शरीर ग्रहण करता अन्न है
उसी के अनुरूप ढल जाता मन है।
न कोई शिकवा
न ही शिकायत है
हमारी ग्रहणीयता का
यही तो परिचायक है।
बदल गया इंसान
कितना अजीब लगता है
जब हम कहते हैं कि
इंसान बदल गया,
परंतु हमने कभी अपने बारे में
सोचा है क्या?
आखिर हम भी तो इंसान हैं,
औरों पर ऊँगलियाँ उठाते हैं,
तो क्या हम खुद को
इंसान नहीं मानते?
फिर……..
जब हम भी इंसान हैं
तब भी खुद को देखते नहीं
औरों पर निशाना साधते हैं,
ऐसा करके
सिर्फ़ अपनी झेंप मिटाते हैं,
अपनी नाकामी छिपाते हैं।
बदले तो सबसे ज्यादा हम ही
ये कहाँ हम बताते हैं?
औरों पर आरोप लगा लगाकर
खुद को सयाना दिखाते हैं,
कौन बदला,कौन नहीं बदला
इसका तो पता नहीं
पर हम जरूर बदल गये हैं,
चीख चीख कर सबको
अपनी औकात बताते हैं।
उपहार
हमें जो मिला है
ये मानव शरीर
इस पर गर्व कीजिए,
इसे ईश्वर से मिला
खूबसूरत उपहार समझिए ।
उपहार मिलने पर
जैसे हम नाचते गाते हैं
फिर संसार के
इस सबसे बड़े उपहार का
उल्लास मनाने में
भला क्यों शरमाते हैं?
चार दिन की जिंदगी का
खुलकर आनंद उठाइए
हँसते नाचते गाते हुए
जिंदगी का उत्सव मनाइए,
संसार उत्सवों से भरा पड़ा है
यही सबको समझाइए।
हर किसी को ये बात
खुलकर समझाइए,
जीवन उत्सव मनाइये
खुश रहिए खुशियाँ बाँटिए
हँसते,नाचते, गाते रहिए
खुशियों के साथ उल्लासित
जीवन बिताइए।
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Author:
✍सुधीर श्रीवास्तव
शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल
बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002