नारी मन की पीड़ा
कहा जाता है कि नारी के मनोभावों को जब भगवान नहीं समझ पाया तो इंसान क्या समझ सकेगा?
आज ऐसे ही नारी की पीड़ा का वर्णन करना विवशता सी बन गई है। उसकी पीड़ा में जो दर्द छुपा है वह हमारे आपके और सभ्य समाज के मुँह पर एक बेटी का माँ को जोरदार तमाचा है जिसकी गूँज अनुगूँज की तरह वातावरण में बड़े अनुत्तरित सवाल खड़े कर रही है और हमारे पास सिवाय अपराधियों की तरह मुँह छिपाने के अलावा और कोई मार्ग/जवाब ही नहीं सूझ रहा है।
मातृत्व नारी का सबसे खूबसूरत अहसास है।माँ के रूप में उसे बेटा प्राप्त हुआ है या बेटी।वह समान रूप से मातृत्व भाव का आनंद लेती है।
लेकिन आज के दूषित परिवेष ने उसे बेटी की मां होने से बुरा कुछ भी नहीं लगता।अनेक नारियों के अन्तः भावों का विश्लेषण करने समझने के बाद यह महसूस हो रहा है कि उनकी जीवन भर की अदृश्य पीड़ा निरर्थक निरापद भी नहीं है।
आज के इस वातावरण में उसे अभिशप्त बना दिया है। नारी बेटी के जन्म से ही वह बेटी की सुरक्षा के प्रति कभी भी सुरक्षित /निश्चिंत नहीं हो पाती।सबसे पहले तो वह बेटी की सुरक्षा के अपने ही परिवार के पुरुषों के प्रति सशंकित रहने लगी है।कारण कि अपवाद से आगे जाकर ताऊ, चाचा, भतीजा,मामा, चचेरे,ममेरे, फुफेरे भाइयों,अन्य रिश्तेदारों यहां तक कि सगे भाइयों ही नहीं बहुत बार तो पिता द्वारा भी बहन बेटियों के मानसिक शारीरक उत्पीड़न की खबरें उसे डराने के लिए काफी हैं।
घर के बाहर हो रही लगातार अभद्रता, छेड़खानी, बलात्कार और हत्या, तेजाब फेंकने के अलावा लव जिहाद का डर एक माँ के लिए अनवरत. बेचैनी ,चिंता का कारण बना होता है।किसी भी उम्र की महिला /लड़की अब सुरक्षित नहीं है। 2-4-5 साल की अबोध बच्चियों से लेकर 65-70 -80 साल तककी बुजुर्ग महिला तक से बलात्कार अथवा बलात्कार के बाद हत्याएं अब असामान्य नहीं रहीं।
ऐसी घटनाएं रोज अखबारी सुर्खियों में रहती हैं।कार्य स्थलों पर भी महिलाएं मानसिक, शारीरक शोषण,दहेज उत्पीड़न,मार डालने, जिंदा जला देने का शिकार होती ही रहती हैं।
ऐसा नहीं है कि हम सब अंजान हैं,परन्तु सब कुछ जानकर हम इसलिए अंजान बने रहते हैं कि मेरे घर की महिला, बहन,बेटी आज सुरक्षित है।लेकिन इस बात की गारंटी कौन देगा कि वे कल भी सुरक्षित रहेंगी ही।कोख में बेटी को मारने की घटनाएं हमारे सभ्य समाज में अभी भी हो ही रही हैं।
प्रश्न कठिन है,लेकिन उत्तर है ही नहीं, तभी तो घटनाएं कम होने के बजाय बढ़ रहे हैं।सरकारी दावे खोखले साबित हो रहे हैं।
नारी शिक्षा, बराबरी के तमाम प्रयासों के बाद भी हम असहाय से होकर रह गए हैं। जरूरत इस बात की है कि हम विकास और समपन्नता के इतर नैतिक मूल्यों को खोते जा रहे हैं।आधुनिकता की अंधी दौड़ और बिखरते संयुक्त परिवार समस्या को और बढ़ाते जा रहे हैं।
आइए हम सभी कथित सभ्य समाज की दुहाई देना बंद कर अपने परिवार, समाज में नैतिक मूल्यों को शामिल करें ही नहीं बल्कि संकल्पित भी हों अन्यथा हम सभ्य समाज का नागरिक भी कहलाने लायक नहीं रहेंगे।
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✍सुधीर श्रीवास्तव
शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल
बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002