नयन
मूक रहकर भी
बहुत कुछ कहते है,
सुख दुःख ,हर्ष विषाद के
भाव भी सहते है।
हंसते मुस्कराते, रोते भी हैं
अंतर्मन के भाव खोलते भी हैं।
बहुत कुछ कहकर,
जाने कितना कुछ
अनकहे रह जाते,
नयनों की अपनी भाषा है,
पर शायद हमें ही
इन्हें पढ़ने का सलीका नहीं आता,
तभी तो हम शिकायतें करते हैं
नयन मौन हो सब कुछ सहते हैं,
अपनी भाषा में
अपने भाव उकेरते हैं,
कोशिशें करते हैं।
अतिवृष्टि
लंबे इंतजार के बाद आई
पर जैसे क्रोध में आई,
पहले तो लगा तुम्हारा रुप वरदानी
पर थोड़े दिन में ही तूने
शुरू कर दी रंगत दिखानी।
लगातार तुम्हारा रूप
विकराल सा होने लगा,
तुम्हारी तांडव लीला से सभी का
सुख चैन खोने लगा।
खेत, खलिहान, बाग बगीचे
सब जलमग्न हो गये
जहाँ तक निगाह जाती,
बस तुम्हारे ही दर्शन होने लगे।
तुम्हारे क्रोध का कहर
हम पर टूट पड़ा,
पशुओं के चारे का
भी अकाल पड़ा।
करुँ विनती बता दो
तुम्हें कैसे मनाएं?
अपनी मनोदशा का
विवरण कैसे समझायें।
हे बरखा रानी अब दया करो
क्रोध का अपने परित्याग करो,
अपने तांडव से और न डराओ
अपना रौद्ररूप समेट कर
वापस अब लौट जाओ।
मैं कौन हूँ?
प्रश्न कठिन है ये कह पाना
कि मैं कौन हूँ?
कोई भी विश्वास से कह नहीं सकता
कि मैं कौन हूँ?
पर दंभ में चूर होकर
जाने कितने यह तो कहते हैं
तुम्हें पता भी है कि मैं कौन हूँ?
धमकी से दबाव बनाने का
भौकाल जरूर बनाते हैं,
परंतु सच में मैं कौन हूँ का
अहसास कहाँ कर पाते।
यह विडंबना नहीं तो क्या है?
मैं कौन हूँ के नाम पर
रोब गाँठते फिरते हैं ,
यह जानने की जहमत तक
नहीं उठाना चाहते कि
कि वास्तव में मैं कौन हूँ।
मैं कौन हूँ यह जानना
बड़ा ही मुश्किल है,
फिर भी खोज में लगा हूँ
शायद अगले…अगले या फिर
अगले पलों में ही सही
यह जान तो सकूँ
कि मैं कौन हूँ।
हिंदी कविता: महफ़िल महफ़िल सहरा सहरा
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Author:
✍सुधीर श्रीवास्तव
शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल
बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002