Mother’s Day Special: माँ के कर्ज से मुक्ति
कहते है माँ का कर्ज
कभी उतर नहीं सकता है,
सच ही तो है।
नौ माह गर्भ में सहेजती
कल्पनाओं की उड़ान भरती
बढ़ते भार को फूलों सा मान
एक एक दिन गिनती।
मौत के मुँह में झोंक
मातृत्व सुख के अहसास को
हँसते हुए जन्म देती,
माँ होने के गर्व में
फूली नहीं समाती।
नारी होने से ज्यादा
माँ बनकर इतराती।
हम सब लाख गुमान करे
कर्ज उतारने का बखान करें,
कितनी ही सुख सुविधाएं दें,
परंतु माँ के गर्भ में सुरक्षित
नौ महीनों तक दिनों दिन
बढ़ते बोझ को ढोने के
खूबसूरत अहसास और
भय मिश्रित आशा भरे इंतजार का
रंचमात्र भी अनुभव नहीं कर सकते।
क्योंकि माँ बनने के चक्र का
हिस्सा जो कभी न बन सकते,
तब वो भला माँ के कर्ज से
मुक्त कहां कैसे हो सकते?
Author:
✍सुधीर श्रीवास्तव
शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल
बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002
माँ
जीवन खुशहाल बनाती है,
भू पर वह स्वर्ग बनाती है,
उसकी ममता के आंचल में,
नर्क भी जन्नत कहलाती है।
स्पर्श जो उसका मिलता है,
फिर जाने क्या हो जाता है,
हर कष्ट दूर हो जाता है,
पुलकित मन खिलता जाता है।
उसके आने की आहट सुन,
रोम-रोम मुस्काता है,
जब एक पल का भी वियोग हो,
मन रोता है चिल्लाता है।
उसके पावन चरणों में,
हमें यह जीवन जीना है,
जहर भी दे दे चाहे वह,
हंसकर उसको भी पीना है।
उसने हमें है जन्म दिया,
कितना कोमल उसका दिल है,
इस प्रेम पूर्ण अनुभव का,
कर्ज चुकाना मुश्किल है।
उनकी हर बात फिक्रमंद,
उनके बताएं अनुभव सच्चे होते हैं,
चाहे कितने भी बड़े हो जाए हम,
उनके लिए सदा बच्चे ही होते हैं।
चाहे हम कहीं भी हो,
उनकी दुआ वहां होती है,
हमारी हर पीड़ा को महसूस करने वाली,
ममता की मूरत मॉं होती है।
Author:
आराधना प्रियदर्शनी
बेंगलुरु, कर्नाटका
🌹 “मैंने ‘माँ’ लिखा” 🌹
और मैं सोचती हूँ क्या लिखुँ,
सोंचा आज वो सर्वस्व लिखूं,
जिसमें केवल मात्र मैं दिखूं,
परन्तु सोचती हूँ क्या लिखूँ।
ये विशाल विस्तृत वसुन्धरा लिखूँ,
या असीमित अकोटी अम्बर लिखूँ,
प्रारब्ध को बांटता तीनो लोक लिखुँ,
या जग के अनंत शिव दिगम्बर लिखुँ,
और मैं सोचती हूँ क्या लिखुँ,
सोंचा आज वो सर्वस्व लिखूं,
जिसमें केवल मात्र मैं दिखूं,
परन्तु सोचती हूँ क्या लिखूँ।
क्या तुलसी का रामचरित लिखुँ,
या स्वयं श्रीराम का जीवनवृत लिखुँ,
क्या सिया का शील स्नेह धैर्य वर्णन लिखुँ,
या रामायण की हरेक गाथा जीवन लिखुँ,
और मैं सोचती हूँ क्या लिखुँ,
सोंचा आज वो सर्वस्व लिखूं,
जिसमें केवल मात्र मैं दिखूं,
परन्तु सोचती हूँ क्या लिखूँ।
क्या कृष्ण की गईया ग्वालन लिखुँ,
या राधा वृंदावन मनभावन लिखुँ,
क्या माधव बाल क्रीड़ा मित्र ग्वार लिखुँ,
या रणभुमि में उद्घोषित गितासार लिखुँ,
और मैं सोचती हूँ क्या लिखुँ,
सोंचा आज वो सर्वस्व लिखूं,
जिसमें केवल मात्र मैं दिखूं,
परन्तु सोचती हूँ क्या लिखूँ।
क्या प्रत्येक हृदय की अभिलाषा लिखुँ,
या आदि से अंत तक कि परिभाषा लिखुँ,
क्या तैतीस कोटि देव और वेद पुराण लिखुँ,
या जो देखा पढ़ा जाना वो महिमा महान लिखुँ,
और मैं सोचती हूँ क्या लिखुँ,
सोंचा आज वो सर्वस्व लिखूं,
जिसमें केवल मात्र मैं दिखूं,
परन्तु सोचती हूँ क्या लिखुँ।
बहुत सोंचा बहुत जांचा घोर अध्ययन किया,
क्या लिखुँ जो सर्वस्व हो इसी का मनन किया,
सोंचा कैसे अनन्त प्रारब्ध को शब्दों में बांध लूँ,
और पूर्ण सर्वस्व को अपनी लेखनी में साध लूँ,
और मैं सोचती हूँ क्या लिखुँ,
सोंचा आज वो सर्वस्व लिखूं,
जिसमें केवल मात्र मैं दिखूं,
परन्तु सोचती हूँ क्या लिखुँ।
और लो आज मैंने सर्वस्व लिख हीं लिया,
खुश हूँ कि मैंने असंभव को संभव किया,
लिखा जिसमें केवल मात्र मैं हीं दिखती हूँ,
लिखा वैसी ही लगती हुँ और वैसी जीती हूँ,
पर जरा सोंचो मैंने क्या लिखा,
जिसमें सर्वस्व मेरा मैं दिखा,
तो मैंने तो बस “माँ” लिखा,
हां मैंने तो बस “माँ” लिखा।
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Author:
ममता रानी सिन्हा
तोपा, रामगढ़ (झारखंड)