Essay on 5 May International Midwife Day

Essay on 5 May International Midwife Day
Essay on 5 May International Midwife Day 5 मई इंटरनेशनल मिडवाइफ डे पर निबंध

Essay on 5 May International Midwife Day | 5 मई इंटरनेशनल मिडवाइफ डे पर निबंध

पुरानी फिल्मों में अक्सर आपने देखा होगा कि किसी महिला के प्रसव के दौरान उसे घर के किसी ढके हिस्से में परिवार एवमं मोहल्ले की औरतें घेरी रहती है तथा कोई एक प्रशिक्षित अनुभवी महिला मुख्य रूप से उस प्रसव-क्रिया का नेतृत्व करते हुए सुरक्षित रूप से प्रसव कराती है तथा घर के बाहर बच्चे की मीठी किलकारी सुनने को व्याकुल खड़े परिवार के पुरुष सदस्यों के सामने बच्चे को हाथ मे लिए निकलती है और उन्हें यह शुभ संदेश सुनाती है ।

दरसअल वह औरत कोई और नही मिडवाइफ या दाई ही होती है , जिसके प्रेम और समर्पण रूपी देखभाल से प्रभावित होकर कुछ लोग उन्हें दाई माँ भी कहते है ।

उसी दाई माँ के द्वारा एक गर्भवती माता की प्रसव के पहले तथा बाद में देखभाल तथा सेवा, व नवजात शिशु के जन्म के बाद से उसके कुछ महीनों तक अद्वितीय ममत्त्व से किये गए लालन पालन को महत्व देने के लिए हम वर्ष 1992 के बाद से प्रत्येक वर्ष 5 मई को इंटरनेशनल मिडवाइफ डे के रूप में मनाते है।

एक गर्भवती महिला के जीवन मे मिडवाइफ की भूमिका उतनी ही महत्वपूर्ण होती है जितनी कि इस धरा के लिए हरियाली। गर्भावस्था के शुरुआती कुछ माह के पश्चात से ही वह गर्भवती महिला के साथ एक माता की तरह रहती है तथा उस महिला की देखभाल करना, उसके स्वस्थ खान-पान का समय से ध्यान रखना, उसके अन्य गर्भावस्था के दौरान जरूरी चीजों का ध्यान रखना उसका कर्तव्य बन जाता है।

हमारे समाज मे पिछले हजारो वर्षो से दाई माँ या मिडवाइफ के इसी महत्व को ध्यान में रखते हुए The State of the World’s Midwifery- स्टेट ऑफ वर्ल्ड मिडवाइफरी ने 1987 के नीदरलैंड में हुए मिडवाइफरी कॉन्फ्रेंस के अंतर्गत प्रथम बार 5 मई 1991 को सभी मिडवाइफो को सामाजिक सम्मान देने के उद्देश्य से इंटरनेशनल मिडवाइफ डे का आयोजन किया तथा उसके बाद वर्ष 1992 से प्रत्येक वर्ष वैश्विक रूप से इसे इंटरनेशनल मिडवाइफ डे के रूप में मनाया जाने लगा।

आज के इस लेख में हम समाज मे एक मिडवाइफ के महत्व एवमं उपस्थिति पर विस्तृत रूप से चर्चा करेंगे ।

मिडवाइफ का पुराने समय के दाई माँ से आधुनिक युग के हॉस्पिटल में प्रसव परिचायिका तक का सफर

भारतीय सामाजिक संरचना, संस्कृति और सामाजिक ढांचे में दाई मां का जिक्र जरूर पाएंगे, चाहे वो रामायण के समय महाराजा दशरथ के चारो पुत्रो के प्रसव के समय हो या महाराजा राणा सांगा के पुत्र रणवीर के समय।

दाई मां हमारे समाज की एक अभिन्न अंग है, पुराने समय मे जब कोई महिला गर्भ को धारण करती थी तब चारो तरफ माहौल खुशियों से भर जाता था और उसके गर्भ धारण के पश्चात की जाने वाली सभी तैयारियों में सबसे महत्वपूर्ण कार्य कुशल दाई माँ का चयन करना होता था, क्योकि एक कुशल दाई माँ के छत्रछाया में ही बच्चे के स्वस्थ जन्म लेने की परिकल्पना की जाती थी और इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति अपने बच्चे के लिए सर्वश्रेष्ठ दाई माँ का चुनाव करता था और फिर उसे बच्चे के नाम पर शुभ नेग देकर अगले कई माह के लिए बच्चे और गर्भवती महिला के मुख्य अभिवाहक के रूप में नियुक्त कर दिया जाता था।

गर्भावस्था के शुरुआती कुछ माह के पश्चात दाई माँ का कार्य प्रारंभ हो जाता था। गर्भवती महिला की विभिन्न जड़ी बूटियों तथा आर्युवेदिक औषधियो से मालिश से लेकर उन्हें स्वच्छ पानी से नहलाना, उनके बाल धुलना, उनके शारीरिक बनावट का ध्यान रखना आदि कार्य उनकी दिनचर्या में शामिल होते थे तथा वह दिन के लगभग अधिकतर समय मे गर्भवती महिला के पास ही रहती थी, जिससे उसके जरूरत के प्रत्येक समान का प्रबंध नियमित समय से पूर्ण हो सके। गर्भवती महिला के स्वास्थ व नियमित खान-पान का विशेष ख्याल रखने की भी जिम्मेदारी दाई माँ उठाती थी। गर्भावस्था के अंतिम महीनों में दाई माँ का कार्य अत्यंत ही महत्वपूर्ण हो जाता था क्योंकि उस समय गर्भवती महिला अपने निजी क्रिया कलापो को भी दूसरे के ही मदद से कर पाने में सक्षम होती है ।

प्रसव के समय दाई माँ कुछ आर्युवेदिक औषधियों, एक छोटा धारधार लौह हथियार, सरसो के तेल व अन्य छोटे-मोटे ग्रामीण दैनिक यंत्रो व तत्वों के प्रयोग मात्र से ही महिला का सुरक्षित प्रसव कराने में सक्षम होती थी।

महिला के प्रसव के समय सबसे महत्वपूर्ण किरदार दाई माँ का ही होता था प्रसव के उपरान्त दाई माँ अगले कुछ माह तक बच्चे और माँ दोनों के स्वास्थ में सबसे अहम भूमिका निभाती थी। बच्चे की नाड़ी काटने से लेकर माँ के प्रसव-क्रिया-काल से बाहर निकल आने तक सभी महत्वपूर्ण कार्य को बखूबी अंजाम देती थी ।

अपने कर्तव्यों के प्रति इनकी ईमानदारी के आधार पर यह कहना गलत नही होगा कि नवजात शिशु की दूसरी माँ दाई माँ या मिडवाइफ ही होती है। जिस प्रकार एक माँ शिशु को अपने गर्भ में 9 माह तक पालती है तो उसके साथ साथ उसमे दाई माँ के प्यारे ममत्त्व की छांव का भी उसके पल्लवित होने में अहम योगदान होता है। पुराने समय में तो गर्भ से निकलने के पश्चात तो शिशु के लालन पोषण की जिम्मेदारी एक हद तक दाई माँ के पास ही आ जाती थी परन्तु अब आज के आधुनिक युग मे बच्चे के माता-पिता की अति व्यस्तता के चलते भी ये जिम्मेदारी आज भी मिडवाइफ पर ही आ जा रही है और एक तरह से यह परंपरा सदियों से आमूल चूल परिवर्तन के साथ चली आ रही है।

प्रशिक्षण के तय मानक के आधार पर आधुनिक समय की प्रसव परिचायिका की पुराने समय के दाई माँ से तुलना

हालांकि पुराने समय मे न तो किसी अस्पताल की व्यवस्था थी, न किसी साधन की और न ही सुलभता से मिलने वाले हकीम वैधों की, इस परिस्थिति में गाँवो में प्रसव के दौरान निसंकोच दाई माँ एक अहम भूमिका निभाती थी परंतु उनमे प्रसव प्रशिक्षण जैसी किसी भी डिग्री को हासिल नहीं किया होता था। उनके सभी कार्य पूर्व के किये या देखे प्रसव अनुभवों पर ही आधारित होते था। उस समय सबसे बड़ी समस्या कुशल व अनुभवी दाई माँ की व्यवस्था करना ही होता था और इसके अभाव में प्रसव के दौरान बच्चे और गर्भवती महिला के मृत्यु दर भी काफी अधिक होती थी ।

वही आजकल के बदलते युग मे दाई माँ की भूमिका की बात करे तो वह पहले के समय से काफी बदल गयी है । अब आधुनिकता के इस युग मे वही दाई माँ को मिडवाइफ के नाम से पुकारा जाने लगा है जो कि बकायदे स्टेट ऑफ द वर्ल्ड मिडवाइफरी और इंटरनेशनल कॉन्फ़ेडरेशन ऑफ मिडवाइफरी(The International Confederation of Midwives (ICM)) के तय मानकों के अनुरूप प्रशिक्षण युक्त होती है। इन सभी मिडवाइफो को तमाम सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं के द्वारा प्रशिक्षण दिया जाता है और तय मानक के आधार पर प्रशिक्षण प्राप्त करने के कारण आज के समय मे प्रसव-क्रिया अत्यंत ही सुलभ व सुरक्षित हो गयी है और इसमें बच्चे व माँ दोनों के मृत्यु दर भी अत्यंत ही कमी आयी है। एक गैर-सरकारी संस्थागत रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान में प्रसव के दौरान मरने वाले बच्चो की दर लगभग 1.5 % है जो पिछले दो दशकों के मुकाबले लगभग 1 प्रतिशत घटी है , जोकि बेहद ही शुभ संकेत है ।

प्रसव के पहले, दौरान व पश्चात माता व बच्चे को विभिन्न रोगों से दूर रखने की जिम्मेदारी

आमतौर पर देखा जाता है कि गर्भावस्था के दौरान गर्भवती महिला में तमाम बीमारियों के होने की आशंका होती है , जिन्हें रोकने की बहुत हद तक जिम्मेदारी दाई माँ की होती है। मिडवाइफ या दाई माँ महिला को बच्चे के स्तनपान से लेकर, संक्रामक बीमारी HIV और अन्य संक्रामक बीमारियां जैसे मलेरिया व टीबी से बचाव हेतु उपाय बताती है तथा एक सुखद भविष्य की नींव हेतु परिवार नियोजन के बारे में भी सही जानकारी प्रस्तुत कराती है ।

चूंकि भारतीय सामाजिक स्वक्षता संरचना को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि यहां पर गर्भधारण करने वाली महिलाओं को संक्रामक बीमारियों से बचाना बहुत ही ज्यादा जरूरी है ताकि भारत का भविष्य तमाम संक्रामक रोग मुक्त हो सके और इस प्रयास को अमल में लाने के लिए भारतीय सरकारी एवं गैर-सरकारी दोनों संस्थाए बहुत ही तेजी से विकासोन्मुख होकर कार्य कर रहे है तथा उनका लक्ष्य अगले 10 वर्षो में लगभग 20 लाख विभिन्न महिलाओं को प्रसव प्रशिक्षण देकर मिडवाइफ बना कर देश के विभिन्न भागों में पहुचाने का है जिससे एक सुखद भारत के भविष्य की मजबूत नींव रखी जा सके और इसमें मिडवाइफो का बेहद ही महत्वपूर्ण भूमिका रहने वाली है ।

स्वास्थ क्षेत्रो में सेवा के द्वारा देश के विकास में मिडवाइफ का योगदान

अनेक परिपेक्ष्य में ये देखा गया है कि स्वास्थ्य क्षेत्र का देश के विकास में बेहद ही महत्वपूर्ण योगदान होता है क्योंकि एक स्वस्थ देश ही मजबूत विकसित देश की नींव रख सकता है और इस कड़ी में मिडवाइफ भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमने कोविड के दौरान लगे लॉकडाउन में देख लिया।

इस दौरान लगभग सभी प्रसव अस्पताल अपनी पूरी क्षमता के साथ सेवा देने में असक्षम थे और इस कठिन समय मे आस पास के प्रशिक्षण प्राप्त, अल्प-प्रशिक्षण प्राप्त मिडवाइफ ने एक बेहद प्रमुख भूमिका निभाई तथा एक बड़ी मात्रा में सुरक्षित प्रसव करवा कर देश को एक और स्वास्थ्य संकट से बचाने में जरूरी योगदान दिया।

अतः निम्नलिखित विश्लेषणो के आधार पर हमने यह देखा और पाया की एक मिडवाइफ का एक गर्भवती महिला के प्रसव क्रिया में योगदान तथा महत्व के साथ ही उसके सामाजिक तंत्र को सुचारू रूप से चलाने में दिया गया योगदान कितना अहम भूमिका अदा करता है।

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Author:

Bharti
Bharti

भारती, मैं पत्रकारिता की छात्रा हूँ, मुझे लिखना पसंद है क्योंकि शब्दों के ज़रिए मैं खुदको बयां कर सकती हूं।