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रूठते वो रहे हम मनाते रहे
रूठते वो रहे हम मनाते रहे
और हर गम गले से लगाते रहे
वो सितम पर सितम हम पे ढाये मगर
हर सितम सह के हम मुस्कराते रहे
बाँट पाए न खुशियां हमारे कभी
हम गम उनके अपना बनाते रहे
फना हो गए उनपे हम आज कल
और वो हर घड़ी आजमाते रहे
यूँ ही जलते रहे बन के परवाने “काजू”
वो शमा बन के हर पल जलाते रहे ..
ज़िन्दगी एक पहेली
ज़िन्दगी को पहेली बताता रहा
मौत को फिर गले से लगाता रहा
कौन रहता यहां सर्वदा से पड़ा
कोई आता रहा कोई जाता रहा
यूँ जिया ज़िन्दगी चार दिन का मगर
तू किसी ना किसी को सताता रहा
क्या तू लाया यहां अब जो ले जाएगा
जानकर बात मन को सुलाता रहा
भूल जायेंगे तुमको सभी एक दिन
फिर क्यों अपना किसी को बताता रहा
“काजू ” का मानना है चलाएगा वो
जो ये सदियों से अबतक चलाता रहा
मैं रोया बहुत दूर जाने के बाद
मैं रोया बहुत दूर जाने के बाद
जो आया ना फिर दूर जाने के बाद
दिल ये धड़कता था धड़कन से तेरे
तड़पा बहुत दूर जाने के बाद
यादों का लेके सहारा जिया मैं
क्या भुला भी तू दूर जाने के बाद
जस्बात तेरी वो तेरी सरारत याद आये सब दूर जाने के बाद
होठों के मुस्कान मुहब्बत के आंसू
रुलाये बहुत दूर जाने के बाद
एहसास तेरे मोहब्बत का “काजू”
हुआ भी बहुत दूर जाने के बाद
तुम्हारा साथ
अब रहे दिन का उजाला या अँधेरी रात हो
आँख में हो अक्श तेरी लब पे तेरी बात हो
मंज़िले कैसी भी हो हर्ज़ अब किस बात का
संग मिल कर हम चलें हाथों में तेरा हाथ हो
ज़िन्दगी ठुकरा भी सकता हूँ महज़ इसके लिए
गर पता चल जाए फिर तुझसे ना मुलाक़ात हो
आखिरी लम्हों में साँसे कर सकीय जो ना वफ़ा
तब भी मेरे महबूब तुमसे आखिरी पल बात हो
अश्क का अब ना निसां रह जाए “काजू” तुझमे फिर
तू मुस्कराये जा भले ही गम की ही बरसात हो
हिलकोरे ले नाव चली है …
जुल्म कहाँ अब रुक पायेगी जुल्मी हैं जब पहरेदार
धर्म के काटें पिरो रहे हैं गली गली में पहरे दार
मद में चूर हुआ बैठा है फिर सुबह से खेवनहार
हिलकोरे ले नाव चली है पार करेगी क्या मजधार
बह रही हर आँख से गंगा कौन पूछे किसका हाल
ये तो हैं हर रोज की बातें गुज़री हैं दर सालों साल
उम्मीदें ना सुनवाई की डाकू हैं अब थानेदार
हिलकोरे …….
ना कहीं अब ईद मनाते ना कहीं भी दिवाली
गम की आंधी निकल चली है खुशियां हैं खाली खाली
छिप गए हैं तेज़ फिजा की छिप गयी मुख की लाली
उम्मीदों का दिप बुझा है मच गया है हाहाकार
हिलकोरे …..
आई है ये रात अँधेरी फिर सुबह कब आएगा
कब खिलेगा फूल खुसी का भौरा फिर कब जाएगा
काजू का बेचैन निगाहे फिर सुकून कब पायेगा
रूठे हो क्या आभी जाओ जग पुकारे पालन हार
हिलकोरे ………
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काजू निषाद गोरखपुर राजधानी