SHORT STORY जीवन:एक यात्रा

Last updated on: February 28th, 2021

जीवन:एक यात्रा

मानव जीवन जिंदगी के विभिन्न पड़ावों को पार करते हुए अपनी अंतिम यात्रा तक पहुंच कर खत्म होती है।परंतु यह विडंबना ही है कि इस यात्रा के किसी। भी पड़ाव पर आपको ठहरने की आजादी नहीं है।जीवन के हर पल में आपको अपनी सतत यात्रा जारी रखनी होती है।

आपके हालात, परिस्थिति और समय कैसे भी हों,आपकी यात्रा जारी ही रहती है।आप खुश हैं,दुखी हैं,सुख में हैं या किसी परेशानी में है।आपकी अन्य गतिविधियां, क्रियाकलाप ठहर सकते हैं,मगर कभी ऐसा नहीं देखा गया कि जीवन यात्रा ग्रहों की तरह ही चलायमान है।

संभवत ऐसा इसलिए भी है कि यह हमें प्रेरित करने,चलते रहने का सूत्र दे रहा है और हम उसे नजरअंदाज करने की कोशिश में भ्रम का शिकार बने बैठे हैं।

यदि हमें अपनी जीवनयात्रा को सरल,सुगम और निर्विरोध बनाना है तो हमें बुराइयों से बचना होगा।ईर्ष्या, द्वेष,क्रोध, घृणा से बचकर चलते हुए सच्चाई, ईमानदारी, प्रेम,सद्भाव और सामंजस्य जैसे भाव अपने में समाहित करते हुए आगे बढ़ना होगा।

तभी हमारी जीवन की यात्रा सुगम,सहज और सहज भाव से अपनी मंजिल तक निर्विघ्न पूर्ण हो सकेगी।
अन्यथा जीवन भर हिचकोलों के बीच डरी डरी आशंकाओं भरी ही होगी।

सरहद पर ठंड

अब ठंड अपनी रौ में आ गई है।ऐसे समय में जब हम सभी घरों में गरम कपडों, रजाई कंबल और गर्म कपडों और अलाव में सुरक्षित रहते हैं,तब हमारे सैनिक भाई एक ओर जहां दुश्मनों से देश को सुरक्षित रखने के लिए हर पल सरहद की निगहबानी में मुस्तैद रहते हैं।ऊपर से भीषण ठंड भी उन सबके लिए किसी दुश्मन से कम नहीं है।

हाँड कँपा देने और हड्डियों तक को हिलाकर रख देने वाली ठंड में 0 डिग्री तापमान में भी खुद के साथ सरहद की रक्षा एकतरफ कुँआ और दूसरी ओऋ खाई जैसी है।लेकिन हमारे रणबांकुरों का जोश कभी कम नहीं होता। लेकिन सरहद की ठंड इतनी सुविधाओं के बाद भी हर वर्ष हमारे अनेक सैनिक भाईयों की मौत का कारण भी बनती है।बावजूद इसके हमारे जाँबाज लाख ऊहापोह के बाद भी अपने कर्त्तव्य पथ से तनिक भी विचलित नहीं होते।


तब जाकर देश के लोग चैन की नींद सोते हैं और दुश्मन इस ठंड का इंतजार करते हुए दुष्चक्र करता रहता है।


कुल मिलाकर यह ठंड हमारे सरहदों पर खड़े सैनिक भाइयों के लिए किसी दुश्मन से कम नहीं है।
हम सब ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि ये ठंड किसी भी नागरिक, बूढ़े, बच्चे और सैनिकों की जान न ले।
सरहद पर खड़े अपने जाँबाज सैनिक भाइयों की कुशल कामना के साथ
जय हिंद।

संस्कार और संस्कृति

कहने के लिए तो ये दो मात्र साढ़े तीन अक्षरों वाले शब्द मात्र हैं परंतु इनकी गहराई और व्यापकता बहुत उच्च भाव का प्रकटीकरण करती है।

हमें हमारे पुरखों से जो संस्कार और संस्कृतियों का सुंदर समन्वय प्राप्त हुआ था वह आज धीरे लुप्त हो रहा है।कहना गलत न होगा कि आज हम अपनी ही संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं।

हमारे अंदर के संस्कार आधुनिकता की बलिबेदी पर दम तोड़ते जा रहा हैं।जिसका दुष्परिणाम हम सब महसूस भी करते हैं मगर उससे खुद ही नहीं बच रहे हैं या यूं कहें कि सारा आरोप दूसरों पर लगाकर खुद पाखंडी बन गर्व महसूस कर रहे हैं।पहले के समय में प्यार दुलार के साथ साथ रिश्तों के बीच संस्कारों, मर्यादाओं की पतली रेखा होने के बाद भी वह मिटती नहीं थी।

ज उसे हम आधुनिक संस्कृति के नाम पर ठोकर मारकर आगे बढ़ते ही नहीं जा रहे हैं बल्कि गर्व भी महसूस करते हैं।
मै अपना उदाहरण देता हैं कि 51 वर्ष का होकर भी मेरी हिम्मत आज भी बड़े पिताजी के सामने या साथ बैठने में संकोच लगता है।(आपको बता दूँ कि मेरे पिताजी की मृत्यु बीस वर्ष पूर्व हो चुकी है।वैसे भी मुझे पिताजी के साथ रहने का अवसर बहुत कम ही मिला।)

मैं यह तो नहीं कह सकता कि इतना संकोच उचित है,लेकिन आज के माहौल/समय में सिर्फ अपने घर परिवार और रिश्तेदारों के मध्य झाँककर देखिए और महसूस कीजिये ।खुद जानकर हैरान हो जायेंगे कि आज किसमें कितना संस्कार शेष है,किसे संस्कृति की परवाह है। क्या इसे ही संस्कृति और संस्कार कहेंगे कि समय के साथ पुरुषों के शरीर पर कपड़े बढ़ रहे हैं महिलाओं केउतने ही कम हो रहे हैं।अपने ही बच्चे मिँ बाप की उपेक्षा, प्रताड़ना से नहीं चूक रहे है।

सास,ससुर जेठ,जेठानी,देवर ,देवरानी,भाई भाभीया अन्य रिश्तों के मध्य कितना संस्कार शेष बचा है कहना जरूरी नहीं है।क्या इसी संस्कृति के दंभ का शिकार आज हम नहीं हो रहे हैं या आगे नहीं होंगे।कौन गारंटी ले सकता है।

इस पर आप जितनी भी चर्चा कर लो,जितने भी भाषण ,व्याख्यान देते रहो,कुछ नहीं होने वाला।

यदि हम चाहते हैं कि समारी संस्कृति और हमारे संस्कार जिंदा रहें तो शुरुआत खुद से खुद के साथ से ही करनी होगी अन्यथा वह दिन दूर नहीं(मेरे पड़ोस में दो सगे भाइयों ने मिलकर जीवित पिता का मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाकर मकान बेंचने की असफल कोशिश की) जब धन के लालच में मां बाप को मार डालने या जीते जी मृत्यु प्रमाण पत्र बनवा लेने जैसी घटनाएं,जो आज अपवाद हैं,आम बात बन कर रह जायेंगी और किसी को किसी पर विश्वास नहीं हो सकेगा। तब हम,हमारेपरिवार समाज और राष्ट्र का क्या हाल होगा?सोचकर भी डर लगता है।

व्यंग्य: आधुनिक साहित्यकार

नमस्कार दोस्तों,

हाँ मैं छपासीय संस्कृति का आधुनिक साहित्यकार हूँ।अब ये आप की कमी है कि अभी तक आप पुरातन युग में ही जी रहे हैं।अरे भाई जागो,समय बदल गया है।

नई संस्कृति जन्म ले चुकी है ,नीति अनीति भूल जाइए, रचना लिखिए, कुछ भी लिखिए।बस पटलों पर प्रतिभाग कीजिए,दस पन्द्रह पटलों पर नई पुरानी रचना भेजिए।

रचना के स्तर की चिंता छोड़़िए, सम्मान पत्रों पर नजर रखिये।रचना कोई पढ़े या नहीं, कहीं छपे या नहीं, बस जुगाड़ और निगाह में सम्मान पत्र रखिये, कौन सा मरने के बाद आप देखने आने वाले हैं।
सम्मान पत्रों को सोशल मीडिया में खूब प्र चारित करिए।

बच्चे, परिवार, रिश्तेदारों मित्रों के बीच भौकल बनेगा।मरने के बाद भी इन सबके बीच आपका यशोगान गूँजेगा।

किसी के बहकावे में न आयें, जब तक जिंदा हैं पटलों पर ही सही जिंदा तो रहिए। मरने के साथ अपनी सृजनात्मकता डायरी कलम के साथ अंतिम संस्कार के लिए साथ लेकर जाइये।

कौन जानता है आपके बाद आपके नाम लेखन का क्या क्या हो जाये?क्या पता आपके मरने के बाद आपके नाम को जिंदा रखने का जतनकर आप को इस मृत्यु लोक में भटकाने ही इंतजाम किया जाये।

जय लेखक, जय लेखनी, जय सम्मान पत्र

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Author:

सुधीर श्रीवास्तव
शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल
बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002