हवा
मैंने देखा एक सवेरा
ठंडी ठंडी हवा चली थी
मेरे दिल के ज़ख्मों को वो
छूकर जाने कहां चली थी।
फिर ये अचानक मैंने सोचा
ठंडी ठंडी हवा ने क्यूकर मेरे ज़ख्मों को सहलाया
आदमी तो ज़ख़्म देता हे
और हवा……
आदमी से कितनी अच्छी है ।
आदमी तो ज़ख़्म देता है
और ये हवा आदमी के ज़ख्मों को भर देती है
अपने शगुफ़ता हाथों से
जो दिखाई नहीं देते
हवा अपनी मीठी आंहों से
बांहों में भरकर
मीठी नींद सुलादेती हे
पता नहीं…………
मैं कब सो जाऊं
फूलों की ख़ुशबू को
अपनी बांहों में भरकर लाती है
और हमें देजाती ह
एक सुकून
एक अहसास
और अपने चन्द लमहात
हमसे क्या ले जाती है
कुछ नहीं….. कुछ भी तो नहीं
और क्या?
यही तो हे हवा
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About Author:
कैफ़ी सुलतान
सुभाष विहार, दिल्ली
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