मंजिल
मंजिलों का क्या है ?
मंजिलें तो मिल ही जायेंगी
मगर ये सोचिए
कि हम सच में
मंजिल पाना चाहते हैं,
हम वो उपक्रम करते हैं
जो हमें मंजिल तक ले जाये?
फिर जब येनके प्रकारेण
जब मंजिल मिल जाती है तब
हम मंजिल पर रहने के लिए
ईमानदारी से उपक्रम करते हैं
अथवा
निश्चिंत हो अपने सारे
मनोरथ भूल जाते हैं,
जानिए, मानिए, विचारिये
मंजिल पाना कठिन है,
मगर उससे भी कठिन है
मंजिल पर बने रहना।
इसलिए
जब मंजिल मिल जाती है तब
लापरवाह मत बनिए,
अपने कर्तव्य पथ पर डटे रहिए
मंजिल का सम्मान करिए
और मंजिल पर बने रहिए।
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About Author:
✍सुधीर श्रीवास्तव
शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल
बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002