व्यंग्य: दहेज
दहेज़ दहेज़ दहेज़
कितना अजीब है,
दहेज़ माँगना बुरा कैसे है?
ये सिर्फ बहाना है,
दहेज़ यदि इतना बुरा है तो
तो बेटी का बाप बेटे के बाप से
सीधे सीधे पूछता है क्यों?
उसकी डिमांड।
क्या दिखाना चाहता है वो
आखिर बेटे के बाप को?
शायद उसकी औकात
दिखाना चाहता है,
या अपनी हैसियत से
उसका बेटा खरीदना चाहता है?
दहेज की माँग न हो तो
अच्छे भले लड़कों में
तमाम खोट ही खोट नजर आता है,
रिश्तों का अकाल सा पड़ जाता है।
क्योंकि कन्या के लिए
वर भला अब कौन तलाशता है?
अब तो लगता है कि हर बाप भी
बेटी के लिए पति नहीं
सिर्फ गुलाम चाहता है,
बेटी की खुशियों से अधिक
दुनिया को अपनी हैसियत
दिखाना चाहता है,
बेटी के सास ससुर पति परिवार को
पैसे के बोझ से दबाए रखकर
बेटी की स्वतंत्रता चाहता है।
मगर भूल जाता है
बेटी के जीवन में खुशियां कम
गम और अस्थिरता
आपसी सामंजस्य में वह खुद ही
पैसों का जहर घोल देता है,
रिश्तों का अहसास पैसों के बोझ तले
सदा सदा के लिए दफन हो जाता है।
दहेज़ सिर्फ़ रोना है
बस महज बहाना है
जब हम बहन बेटी ब्याहते हैं,
वहीं जब बेटा भाई ब्याहना होता है
तो बड़े ही प्यार और सफाई से
दहेज़ को परदे के पीछे रख
जाने कैसा कैसा अर्थशास्त्र
बेटी वालों को समझाता है।
दहेज का तो सिर्फ़ बहाना है
बेटी वाला हो या बेटा वाला
दोनों का असल मकसद एक है
दहेज के बहाने से समाज में
अपनी औकात दिखाना है।
समाज की तस्वीर
समाज की तस्वीर का
बखान क्या करें साहब ?
समाज कोई वस्तु तो है नहीं
जो किसी कारखाने में निर्मित हुई है।
अपने आपको देखिये
फिर चिंतन मनन कीजिये
आपने समाज बनाने की
जितनी जिम्मेदारी निभाई होगी
वैसी ही तस्वीर समाज की
आपको स्पष्ट नजर आयेगी।
समाज की तस्वीर देखने से पहले
अपने आप में झाँकिए हूजूर
समाज की तस्वीर
साफ साफ नजर आयेगी,
आपकी शराफत और बेहयाई की
सारी कहानी खुद ब खुद
आँखों के सामने
आइने की तरह साफ दिख जायेगी।
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Author:
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा, उ.प्र.