HINDI KAVITA: खतों की यादें

Hindi Kavita on Memories of Letters
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खतों की यादें

अचानक एक दिन
पुराने खत दिखे तो
बीते दिनों की याद ताजा हो गई,
अलमारी में कैद
पुराने खतों की स्मृतियां
जेहन में आ गईं।

उन पत्रों में लिखे शब्द
जाने कितने अजीजों की
स्नेह, ममता, दुलार, डांट, फटकार
नसीहत, और अपनापन
स्मृतियों में घूम गई।

अब तो खतों का जमाना
लुप्तप्राय सा हो गया है,
आपसी भावनाओं का ज्वार
जैसे थम सा गया है।
अब किसी को का
इंतजार कहाँ होता?

मगर खतों सरीखा लगाव
सोशल मीडिया में नहीं होता।
अब तो अलमारी में कैद
खत यादगार बनें हैं
निशानी बनकर
अलमारी में कैद हैं,

अब तो सिर्फ़
महसूस किया जा सकता है
खतों का इंतजार
किया होगा जिसनें
वो ही समझ सकता है,
आँखों की भीगी कोरों के साथ
खतों में छिपे अहसास को
सच में समझ सकता है।

भावनाएँ बारिश की

ये भी अजीब सी पहली है
कि बारिश की भावनाओं को तो
पढ़ लेना बहुत मुश्किल नहीं
समझ में भी आ जाता है
पढ़कर समझ में भी आता है।

परंतु भावनाओं की बारिश
कब, कहाँ कैसे और
कितनी हो जाय ,
कोई अनुमान ही नहीं।

हमारी ही भावनाएं
कब, कहाँ, कैसे और कितनी
कम या ज्यादा बरस जायेंगी
हमें खुद ही अहसास तक नहीं।

भावनाओं की बारिश के
रंग ढ़ग भी निराले हैं,
अपने, पराये हों या दोस्त दुश्मन
जाने पहचाने हों या अंजाने, अनदेखे
जल, जंगल, जमीन, प्रकृति,
पहाड़, पठार या रेगिस्तान

धरती, आकाश या हो ब्रहांड
पेड़ पौधे, पशु पक्षी ,कीट पतंगे,
झील, झरने,तालाब ,नदी नाले
या फैला हुआ विशाल समुद्र,
सबकी अपनी अपनी भावनाएं हैं
और सबके भावनाओं की
होती है बारिश भी।

इंसानी भावनाएं होती सबसे जुदा,
इन्हें और इनकी भावनाओं को
न पढ़ सका इंसान तो क्या
शायद खुदा भी।
भावनाएं और उसकी बारिश की
लीला है ही बड़ी अजीब सी।

संजीदगी

अब तो संजीदा हो जाइए
उच्चश्रृंखलता छोड़िए,
समय की नजाकत महसूस कीजिए माहौल अनुकूल नहीं है
जान लीजिए।
लापरवाही और गैरजिम्मेदारी
भारी पड़ती जा रही है,

आपको शायद अहसास नहीं है
कितनों को खून के आँसू रुला रही है।
धन, दौलत, रुतबा भी
कहाँ काम आ रहा है,
चार काँधे भी कितनों को
नसीब नहीं हो रहे हैं,

अपने ही अपनों को आखिरी बार
देखने को भी तरस जा रहे हैं,
सब कुछ होते हुए भी
लावारिसों सा अंजाम सह रहे हैं।
अपनी ही आदतों से हम
कहाँ बाज आ रहे हैं,
खुल्लमखुल्ला दुर्गतियों को
आमंत्रण दे रहे हैं।

कम से कम अब तो
संजीदगी दिखाइये,
अपने लिए नहीं तो
अपने बच्चों के लिए ही सही
अपनी आँखें खोल लीजिए।
आज समय की यही जरूरत है
संजीदगी को अपनी आदत में
शामिल तो करिए ही,
औरों को भी संजीदगी का
पाठ पढ़ाना शुरु कर दीजिए।

विद्रूप वाणी

अब इसे क्या कहें?
अभिव्यक्ति की
आजादी के नाम पर
शब्दों का
खुला चीर हरण हो रहा है,
विरोध के नाम पर
शब्दों की मर्यादा का
हनन हो रहा है।

न खुद के बारे में सोचते हैं,
न ही सामने वाले के
पद प्रतिष्ठा का ध्यान रखते हैं।
बस आरोप प्रत्यारोप में
अमर्यादित शब्दों का
जी भरकर प्रयोग करते हैं,

बस अधिकारों के नाम पर
सतही बोलों पर उतर आते हैं।
अगली पीढ़ियों को हम
शिक्षा,सभ्यता,विकास और
आधुनिकता के नाम पर
ये कौनसा, कैसा चरित्र
सिखाते, समझाते, दिखाते हैं?

हम अपनी विद्रूप वाणी से
ये कैसा उदाहरण देना रहे हैं।
अफसोस की बात तो यह है कि
न तो हम लजाते,शर्माते हैं
न ही तनिक भी पछताते हैं,
इस फेहरिस्त में हर रोज
नये नाम जुड़ते जाते हैं।

सायली छंद

गुमनाम
^^^^^^^
गुमनाम
रहकर भी
काम कर जाता
बिना शोर
नाम
^^^^^
बेबस
लाचार क्यों
हौसला तो कीजिए
गुमनामी से
निकलिए।
^^^^^
गुमनाम
मत रहिए
कुछ नया कीजिए
पहचान बनेगी
स्वयं।
^^^^^
कल
गुमनाम था
आज नाम वाला
क्या किया
उसने।
^^^^^

Loudspeakerहिंदी कविता: फौजी

Loudspeakerकविता संग्रह: आराधना प्रियदर्शनी



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Author:

Sudhir Shrivastava

सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा, उ.प्र.