सच्ची घटना: भगवान ने बचा लिया

Last updated on: October 4th, 2020

भगवान ने बचा लिया

घटना अक्टूबर 1989 की है। मैं अयोध्या में कमरा लेकर रह रहा था। उस समय मैं परिवहन निगम के क्षेत्रीय कार्य शाला मसौधा,फैजाबाद में प्रशिक्षु प्रशिक्षण ले रहा था और अयोध्या में कमरा लेकर रह रहा था।मैं जहाँ रहता था,वहाँ एक मंदिर था। उसके चारों ओर कमरे बने थे।मंदिर के आगे थोड़ा दायीं ओर कुआँ था।कुएँ के पास ही हैंडपंप भी था। मंदिर के ठीक सामने सड़क की ओर बड़ा से गेट लगा निकासद्वार था।

दायें बायें और गेट के बगल बायीं ओर के कमरों के सामने बरामदा भी था। मंदिर के चारों ओर बरामदे से लगकर करीब 5-6 फीट का खुला रास्ता भी था। वहाँ रहने वालों के लिए शौचालय जाने, स्नान, कपड़ा धुलने और बाहर निकलने का समुचित प्रबंधन यही था। जो सुगम भी था। वहाँ लगभग 30-35 किरायेदार थे। मुझे व दो तीन अन्य के अलावा बाकी सभी किरायेदार परिवार संग रहते थे।

एक दिन मैं छुट्टी लेकर लगभग एक बजे कमरे पर आ गया।
कमरा खोलकर घुसा ही था कि मुख्य द्वार की तरफ जोर का शोर सुनाई दिया। जल्दी से बाहर निकला और दरवाजा खींच जल्दी से बाहर की ओर भागा।देखा तो कई महिलाएं कुँए में देखकर चिल्ला रही थीं। मैनें भी देखा कि डेढ़ दो साल की बच्ची अप्रत्याशित रूप से पानी की सतह पर तैरती दिख रही रही थी।

बताता चलूं कि मैं पहले जब आया था तब मैंनें देखा था कि दो औरतें कुएँ की मुंडेर (जगत) जो लगभग पांच फुट चौड़ा था,पर बैठी बात कह रही हैं और एक बच्ची उनके पास ही खेल रही थी। कुएँ में ये वही बच्ची थी,जो शायद उन महिलाओं की पल भर के लिए नजरों सें विस्मृत होकर कुएँ में गिर गई थी।

कुएँ पर जो रस्सी बाल्टी संग बंधी थी वह इतनी मजबूत नहीं थी कि उसके सहारे कुएँ में उतरा जा सके।चूँकि उस समय वहाँ कोई अन्य पुरुष था नहीं इसलिए बिना कुछ कहे सुने बगल के मंदिर भागा और जो भी सामने मिला उसे बताते हुए वहाँ कुएँ पर लगी रस्सी लेकर भाग कर ही वापस आया। रस्सी को पिलर में बाँधा और ये कहते हुए कि मेरे जाने के बाद रस्सी में बाल्टी और एक गमछा डालें और मैं कुएँ में उतर गया।तब तक पड़ोसी मंदिरों से भी लोग आ गये थे।

जूट की रस्सी के सहारे मैं जैसे स्वमेव नीचे चला गया।हाथों में पर्याप्त जलन भी होने लगा था।हाथ एकदम सुर्ख लाल हो चुके थे।परंतु इस समय तो जैसे सब कुछ भगवान ही मुझे निमित्त बनाकर करवा रहे थे।सब कुछ जैसे स्वमेव हो रहा था। कुँआ थोड़ा पतला किन्तु कुछ ज्यादा गहरा था। बता दूँ कि अयोध्या में पानी का स्तर सामान्य से कहीं नीचे है।

कुएँ में नीचे हालांकि डर मुझे भी लग रहा था,क्योंकि तैरना मुझे आता नहीं था। कुएँ में दोनों तरफ पैरों के सहारे खड़ा होकर किसी तरह बच्ची को संभाला तब तक बाल्टी और गमछा भी नीचे आ गया। बच्ची को बाल्टी में बैठाकर गमछे से इस तरह बाँधा कि किसी भी हालत में उसके दोबारा गिरने का खतरा न रहे।
खैर …।।

बच्ची सकुशल बाहर पहुँच गई, उसके बाद मैं भी रस्सी के सहारे बाहर आया।यह देख कि बच्ची अपनी माँ की गोद में खेल रही है,जैसे कुछ हुआ ही न हो। मेरे मन को संतोष हुआ । मैनें ईश्वर का आभार धन्यवाद किया और कमरे में आकर लेट गया।मुझे खुद पर ही विश्वास नहीं हो रहा था कि ऐसा कैसे हुआ। क्या सचमुच मैंनें ऐसा किया ।

आज भी जब कभी वो घटना याद आती है,विशेष रूप से अयोध्या जाने पर, तो सबकुछ अप्रत्याशित चमत्कारिक ही लगता है। तब केवल यही सोच बनती है प्रभु की लीला ऐसे ही होती है। शायद भगवान ने ही उस बच्ची के प्राण बचाये थे सूत्रधार बनकर,और मैं भी उस लीला का एक पात्र था।

ऊँ…हरि….ऊँ……..

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सुधीर श्रीवास्तव
शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल
बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002