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उधम सिंह की जीवनी | Udham Singh Biography in Hindi
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में क्रांतिकारी उधम सिंह के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। वह सिर्फ एक देशभक्त ही नहीं थे, बल्कि उनके मन में अंग्रेजों के प्रति घृणा का भाव था, और यह घृणा जालियांवाला बाग हत्याकांड के बाद पनपा।
जालियांवाला हत्याकांड में अंग्रेजों द्वारा हजारों निर्दोषों की जान ले ली गई थी। इसका बदला उधम सिंह ने माइकल ओ. डायर की हत्या करके ली।
इस घटना के बाद से ही उधम सिंह को शहीद-ए-आज़म उधम सिंह के नाम से जाना जाता है। भले ही उधम सिंह आज हमारे बीच नहीं है, लेकिन वह इतिहास के पन्नों पर हमेशा के लिए अमर रहेंगे। आइए जानते हैं इस महान क्रांतिकारी के जीवन के बारे में।
नाम | शहीद-ए-आज़म सरदार उधम सिंह |
असली नाम | शेरसिंह |
जन्म तिथि | 26 दिसंबर 1899 |
जन्म स्थान | सुनाम, पंजाब |
माता का नाम | नारायण (नरेन) कौर |
पिता का नाम | सरदार तेहाल सिंह जम्मू |
भाई का नाम | मुक्ता सिंह |
मृत्यु | 31 जुलाई 1940 |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
वैवाहिक स्थिति | अविवाहित |
शहीद सरदार उधम सिंह जयंती | 26 दिसंबर |
उधम सिंह का आरंभिक जीवन
सरदार उधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम में हुआ। उधम सिंह के पिता का नाम सरदार तेहाल सिंह जम्मू था जो कि पड़ोस के गांव उपली के रेलवे क्रॉसिंग में चौकीदार के रूप में कार्यरत थे। वहीं उनकी माता नरेन कौर एक गृहणी थीं।
सरदार उधम सिंह को उनके माता-पिता ने शेर सिंह नाम दिया था, वहीं उनके भाई का नाम मुक्ता सिंह था। लेकिन इन दोनों के सर पर माता-पिता का साया लंबे समय तक नहीं रहा।
दरअसल, 1901 में उधम सिंह की मां का देहांत हो गया था और उसके 6 साल बाद यानी कि 1907 में उनके पिता का भी देहांत हो गया। 8 साल के बच्चे के सर से माता पिता का साया अचानक हट जाने से दोनों अनाथ हो गए। जिसके बाद उन्हें अमृतसर के सेंट्रल खालसा अनाथालय भेजा गया।
इस अनाथालय में शरण लेने के लिए दोनों भाइयों को नया नाम स्वीकार करना पड़ा। जहां शेर सिंह का नाम परिवर्तित कर उधम सिंह कर दिया गया तथा मुक्ता सिंह का साधु सिंह कर दिया गया। सरदार उधम सिंह भारतीय एकता के प्रबल समर्थक थे इसलिए बाद में उन्होंने अपना नाम परिवर्तित कर राम मोहम्मद सिंह आजाद रख लिया था।
उनका यह नाम सभी धर्मों का परिचायक था। अपने माता-पिता को खोने के बाद उधम सिंह के पास एक ही सहारा था, वे थे उनके भाई। लेकिन 1917 में उनके भाई की भी मृत्यु हो गई जिसके बाद 1918 में उधम सिंह ने अपनी मैट्रिक की परीक्षा देकर 1919 में अनाथालय को छोड़ दिया।
उधम सिंह के अनाथालय छोड़ने के समय पंजाब में काफ़ी राजनीतिक उथल-पुथल जारी थी और इससे उधम सिंह अच्छी तरह से वाकिफ़ थे।
जालियांवाला बाग हत्याकांड और उधम सिंह का प्रण
साल 1919 में पंजाब के जालियांवाला बाग में रॉलेक्ट एक्ट जैसे काले कानून के विरोध में हजारों की तादाद में लोग इकट्ठा हुए।
उस दिन उस जगह अचानक जनरल डायर अपनी फौज के साथ आ धमकता है और इन लोगों पर अंधाधुंध फायरिंग करना शुरू कर देता है, जिससे हजारों की संख्या में लोगों की मौत हो जाती है। इन मृत लोगों में मां के सीने से लगे दुधमुँहे बच्चे, बुजुर्ग और देश के युवा शामिल थे, जो अपनी जान बचाने के लिए बाग से बाहर निकलने के लिए दीवारों पर चढ़ने लगे।
कई कुओं में कूद गए। लेकिन जनरल को रहम नहीं आया और उसने इन सभी को मौत के घाट उतार दिया। जनरल डायर के पागलपन ने बड़ी तादाद में लोगों की जानें ले ली। आधिकारिक ब्रिटिश भारतीय सूत्रों की माने तो इस हत्याकांड में करीब 400 लोगों की जान चली गई। लेकिन वहीं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का कहना था कि इसमें 1000 लोग मारे गए जबकि 1,500 लोग घायल हुए।
1913 में गदर पार्टी का निर्माण किया गया था और 1924 में उधम सिंह ने इस पार्टी में शामिल होने का निश्चय लिया। दरअसल, इतनी तादाद में निर्दोष लोगों के मारे जाने के बाद से हर भारतीय के मन में अंग्रेजों के प्रति घृणा का भाव पनपा। लेकिन उधम सिंह ने देशवासियों के साथ हुई इस अमानवीय घटना का प्रतिशोध लेने की ठान ली तथा उन्होंने जनरल डायर को मारने का प्रण ले लिया।
अपने प्रण को पूरा करने के लिए सरदार उधम सिंह ने विभिन्न देशों जैसे ब्राजील, अफ्रीका और अमेरिका की यात्रा की। 1924 में भगत सिंह ने उन्हें देश वापस लौटने का आदेश दिया। जब वे लंदन पहुंचे तो वहां से उन्होंने छह गोलियों वाली रिवाल्वर खरीदी लंदन से वापस आते समय बिना लाइसेंस के हथियार की वजह से उन्हें 4 साल जेल में व्यतीत करना पड़ा।
जेल से बाहर आने के 21 साल बाद यानी कि 13 मार्च 1940 को रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी के काकस्टन हॉल में एक बैठक की गई। बैठक के करीब आते ही उधम सिंह ने अपनी बंदूक निकाल ली जो कि एक मोटी पुस्तक पर बंद की गई थी।
उन्होंने जनरल डायर को मारने के लिए दो शॉट चलाए, जिसके बाद जनरल डायर की उसी स्थान पर मृत्यु हो गई। गोली चलाने के बाद भी उधम सिंह गिरफ्तारी के डर से नहीं भागे उसी स्थान खड़े रहकर आत्मसमर्पण किया।
शहीद हुए सरदार उधम सिंह
इस घटना के बाद 31 जुलाई 1940 में सरदार उधम सिंह को लंदन के पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई। लेकिन उनके मृत शरीर के अवशेषों को 31 जुलाई 1974 में भारत को सौंपा गया।
बाद में अस्थियों को सम्मान के साथ भारत लाया गया। इस प्रकार तीन दशक बाद उधम सिंह के शरीरों का अवशेष भारत लाया गया और उधम सिंह का अंतिम संस्कार किया गया।
उधम सिंह के गांव में उनके लिए एक समाधि बनाई गई है। इस घटना के बाद ब्रिटिश सरकार की गतिविधियों के बावजूद देश में क्रांतिकारी आंकड़ों में तीव्र गति से तेजी हुई।
इस घटना के संबंध में एक बात पर गौर किया जाना जरूरी है; दरअसल जब उधम सिंह को जज के सामने पेश किया गया तब उनसे यह सवाल पूछा गया कि जनरल डायर के अलावा उन्होंने अन्य पर गोली क्यों नहीं चलाई? तब उधम सिंह ने जवाब दिया कि उस समय वहां कई औरतें मौजूद थीं तथा हमारी संस्कृति में औरतों पर हमला करना पाप है।
उधम सिंह भगत सिंह के विचारों से प्रेरित
उधम सिंह शहीद भगत सिंह के विचारों से प्रभावित थे। दूसरे शब्दों में कहें तो वह भगत सिंह के एक बहुत बड़े फैन थे। लेकिन भगत सिंह का फैन बनना उनके लिए एक बार भारी पड़ गया था।
दरअसल, 1935 में वे कश्मीर में थे तथा उन्होंने भगत सिंह की तस्वीर को अपने हाथों में पकड़ रखा था। लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें भगत सिंह का शिष्य तथा उनका साथी मान लिया था।
शहीद उधम सिंह को सम्मान
- उधम सिंह को शहीद-ए-आज़म के रूप में जाना जाता है।
- राजस्थान के अनूपगढ़ में उधम सिंह की नाम पर एक चौकी बनाई गई है।
- पूर्व मुख्यमंत्री मायावती द्वारा 1995 में शहीद उधम सिंह को श्रद्धांजलि देने के लिए उत्तराखंड के 1 जिले का नाम उधम सिंह नगर किया गया था।
- उधम सिंह के पुण्य तिथि के दिन हरियाणा और पंजाब में सार्वजनिक अवकाश दिया जाता है।
- स्कॉटलैंड यार्ड के ब्लैक म्यूज़ियम में उनकी डायरी, चाकू और शूटिंग के दौरान प्रयोग में लाई गई गोलियों को रखा गया है।
- उत्तम सिंह के सम्मान में उनके ऊपर कई फिल्में बनाई गई जैसे कि
- जालियांवाला बाग(1977)
- शहीद उधम सिंह(1977)
- शहीद उधम सिंह(2000)
इस घटना के 7 साल बाद यानी कि 1947 में भारत आजाद हुआ लेकिन इस आजाद भारत में उधम नहीं थे परंतु उनकी यादें हमेशा इतिहास के पन्नों पर अमर रहेगी।
Author:
भारती, मैं पत्रकारिता की छात्रा हूँ, मुझे लिखना पसंद है क्योंकि शब्दों के ज़रिए मैं खुदको बयां कर सकती हूं।