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आँसू
आँसुओं की भी
अजब कहानी है,
कहने को तो पानी है
पर गम और खुशी
दोनों ही इसकी कहानी है।
आँसू दु:खों का बोझ
कम कर देते हैं
खुशी में भी आँसू
निकल ही आते हैं।
कभी तो ये अनायास ही
बहने लगते है,
आपके अपने मन के भाव
दुनियां को बता देते हैं।
आँसुओं को पीना भी
बड़ा कठिन होता है,
आँसुओं को बहनें से रोकना
सबसे मुश्किल होता है।
आंसुओं की कोई जाति ,धर्म
ईमान नहीं है
अमीर गरीब की उसे
पहचान नहीं है।
सबके आँसुओं का
बस एक रंग है,
किसी भी आँख से बहे आँसू
पर रंग देख लो
कभी बदरंग नहीं है।
हमारे संस्कार
माना कि आधुनिकता का
मुलम्मा हम पर चढ़ गया है,
हमनें सम्मान करना जैसे
भुला सा दिया है।
पर ऐसा भी नहीं हैं कि
दुनियां एक ही रंग में रंगी है,
सम्मान पाने लायक जो है
उसे सम्मान की कमी नहीं है।
हम लाख आधुनिक हो जायें
पर हम सबके ही संस्कार भी
मर जायेंगे,
ऐसी वजह भी नहीं है।
हमारी परंपराएं कल भी जिंदा थीं
आज भी हैं और कल भी रहेंगी,
कुछ सिरफिरे भटक गये होंगे
यह मान सकता हूँ मगर,
विद्धानों की पूजा कल की ही तरह
आज भी हो रही है।
विद्धान पूजित था,है और रहेगा
विद्धानों की पूजा करने वालों की कमी
न कभी पहले ही थी और न ही आज है,
डंके की चोट पर ऐलान मेरा है
न ही कभी कमी होगी।
विद्वान पहले की तरह पूजा जाता है
आगे भी सर्वत्र पुजता ही रहेगा,
विद्धानों का मान,सम्मान,
स्वाभिमान कभी कम नहीं हुआ है
और आगे भी नहीं होगा।
सदाचार
आचार, विचार, व्यवहार संग
सदाचार भी जरूरी है,
ऐसा करना जरुरी नहीं
इसीलिए तो और भी जरूरी है।
सदाचार के बिना
सब बिखरता जायेगा,
लाख कोशिशों के बाद भी
आपका अपना ही व्यक्तित्व
खोता जायेगा।
एक बार जो खो गया व्यक्तित्व तो
लाख कोशिशों के बाद
शायद ही लौट पायेगा,
मगर तब तक आप
जो कुछ भी खो चुके होंगे,
वह वापस कभी भी
न ही लौट पायेगा।
इसलिए अब तो भाइयों, बहनों
अच्छा है जाग ही जाइये,
खुशहाल जीवन के लिए
सदाचार अपनाइए।
गुरु बिन ज्ञान
हमारे देश में
गुरु शिष्य परंपरा की
नींव सदियों पूर्व से
स्थापित है।
इस व्यवस्था के बिना
ज्ञान और ज्ञानार्जन की
हर व्यवस्था जैसे
विस्थापित है।
माना कि हमनें
विकास की सीढ़ियां
बहुत चढ़ ली है,
मगर एक भी सीढ़ी
हमें बता दो जो तुमनें
गुरु के बिना गढ़ ली है।
भ्रम का शिकार या
घमंड में चूर मत हो,
धन,दौलत का गुरुर
अपने पास ही रखो,
आँखे फाड़कर जरा
अपने आसपास देखो।
कब,कहाँ और कैसे
तुमनें ज्ञान पाया है,
जिसमें गुरु का रोल
जरा भी नहीं आया है।
जन्म से मृत्यु तक
वह समय कब आया है?
जब तुम्हारा खुद का ज्ञान
तुम्हारे अपने काम आया है।
जिस ज्ञान पर आज
इतना तुम इतराते हो,
ये ज्ञान भी भला तुम
क्या माँ के पेट से लाये हो?
कदम कदम पर ये जो
ज्ञान बघारते हो,
सोचो क्या ये ज्ञान भला
स्वयं से ही पा जाते हो।
प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष हमें जीवन में
हजारों गुरु मिलते हैं,
उनके दिए ज्ञान की बदौलत ही तो
हमारे एक एक दिन कटते हैं।
गुरु के बिना भला
ज्ञान कहाँ मिलता है,
गुरुज्ञान की बदौलत ही तो
हमारे जीवन चलता है।
हाइकु: भाई
भाई भाई में
प्रेमभाव कितना
बच्चे बताते।
भाई का भाई
पर, विश्वास बने
समृद्धि बढ़े
बैर बढ़ता
आज भाई भाई में
एकता कहाँ।
विचार करो
भाई तो अब भी है
भेद कैसा।
ये कैसा प्रेम
भाई भाई का शत्रु
कैसे ये भाई।
समय चक्र
भाई सबसे दूर
भाई दुश्मन।
भाई सा सगा
भाई सा ही दुश्मन
और नहीं कोई।
एक ही कोख
से,जन्में तो हैं दोनों
अंतर देखो।
काम आते हैं
विषम हालत में
भाई भाई के।
भाई ही भाई
से,मुंह मोड़ लेता
ये कैसे भाई।
लालच बढ़ा
हक छीनता आज
भाई भाई का।
परिधान
हमारे व्यक्तित्व
हमारी संस्कृति सभ्यता की
पहचान है परिधान।
आधुनिकता की आड़़ में
उल जूलूल और बदन उघाड़ू
परिधान उजागर कर रहे
हमारी मानसिकता का निशान।
कार्टून बनने और उधारी संस्कृति से
हम क्या सिद्ध कर रहे हैं,
लगता है जैसे हम अपनी ही
हंसी का पात्र बन रहे हैं।
कुछ हमारे बुजुर्ग भी अब
पाश्चात्य संस्कृति का जैसे
शिकार बन रहे हैं,
अपनी बहन,बेटियों, बहुओं को
जैसे नाटक मंडली का
पात्र बना रहे हैं
अधनंगे बदन देख
कितना खुश हो रहे हैं।
अरे ! कम से कम
अपनी परंपरा को तो
संभाल कर रखो,
शालीन परिधान पहनो, पहनाओ
अपनी संस्कृति, सभ्यता को
न नंगा नाच नचाओ।
सिर्फ कहने भर से ही
सभ्य, सुसंस्कृति नहीं कहलाओगे
कम से कम परिधानों में ही सही
भारतीय संस्कृति, सभ्यता का
आभास तो कराओ।
माना की आपको आजादी है
पर ऐसी आजादी का फायदा
भला क्या है?
जो आपके परिधानों के कारण
आपको, समाज को और राष्ट्र को
बेशर्मी और असभ्यता का
मुफ्त में तमगा दिलाए।
कविता संग्रह: आराधना प्रियदर्शनी
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Author:
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा, उ.प्र.