संस्कार
संस्कारों का भी अपना संसार है,
संस्कारों पर भी सबके अलग मानदंड हैं।
सब अपने अपने ढंग से
संस्कार ही तो देते हैं,
पर उन संस्कारों की परिधि से
खुद को दूर ही रखते हैं।
आज संस्कार भी विडम्बनाओं के
जाल में उलझकर रह गया है।
बाप बेटे को संस्कार ही तो देता है,
अपने माँ बाप की उपेक्षा,
अनादर करके,
माँ बहू से बड़ी अपेक्षा रखती है पर
बेटी को वही बात नहीं समझाती है।
हम औरों को संस्कार सिखाते हैं,
परंतु खुद उनकी परिभाषा तक
नहीं जानना चाहते।
क्योंकि संस्कार तो
औरों के लिए है,
हम तो संस्कारों की परिधि
बहुत पीछे छोड़ आये हैं।
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About Author:
✍सुधीर श्रीवास्तव
शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल
बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002