महफ़िल महफ़िल सहरा सहरा
महफ़िल महफ़िल सहरा सहरा
इश्क का मारा इक परवाना
अपने परों को ख़ाक बनाये
तड़प रहा है
दिल में तेरा प्यार बसाये
इक झूठी उम्मीद जगाए
भटक रहा है
तू क्या जाने प्यार की क़ीमत क्या होती है
तुझसे इश्क़ जो करता है तो वो जलता है
बसती बसती जंगल जंगल गुलशन गुलशन
दिल का आंगन सूना सूना
रात हे और उसपर तनहाई
कभी कभी तो ये लगता है
जैसे वो पीछे से आकर मेरा शाना हिला रही है
और अपने तीखे लहजे में
मुझको मुझसे मांग रही है
देखता हूँ जब अपने पीछे
कोई नहीं है मेरे पीछे
दूर तलक भी कोई नहीं है
फिर कयूं इस के जिस्म की बू से
मेरा शाना महक रहा है
फिर कयूं इसके जिस्म की ख़ुशबू
हर जा मुझको ढूंढ रही है
फिर कयूं इसके जिस्म की ख़ुशबू
मेरा पीछा करती है
और मुझको तडपाती हे
इसी लिए……
महफ़िल महफ़िल सहरा सहरा
इश्क का मारा इक परवाना
अपने परों को ख़ाक बनाये
तड़प रहा है ।।
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About Author:
कैफ़ी सुलतान
सुभाष विहार, दिल्ली